Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 384
________________ अनेकान्त | वर्ष १४ कई शताठिन उपरान्त मूल दानशासनका नवीनीकरणमात्र वरन् उमास्वामी और उनके पश्चात् होने वाले बलाकही माना जाता है। प्रस्तुत शिलालेखके सम्बन्धमें भी यही पिरछके भी उत्तरवर्ती हैं। उमास्वामी कुन्दकुन्दके पश्चात् समझा जाता है कि यदि यह बिल्कुल जाली नहीं है तो हुए हैं और ये दोनों विद्वान पहली शताब्दी ईस्वी के हैं। कम-से-कम यह बात तो निश्चित है कि इसमें से पंचविं- बल्कि उमास्वामीके तो दूसरी शताब्दी ई०के कुछ भागमें शति' के साथ प्रयुक्त होनेवाला शताब्दि सूचक शब्द या भी जीवित रहनेकी संभावना है। स्वयं मुख्तार साहबकी तो नष्ट हो गया है अथवा लेखककी भूलसे हट गया है अभी तककी मान्यता इसके विपरीत नहीं है। और यह लेख किसी उत्तरवर्ती गंग मरेशका है। (३) दिगम्बर आम्नायके आगमोंके संकलनकर्ता इसके अतिरिक्त, गंग शिलालेखोंके अनुसार सिंहनन्दि आचार्य गुणधर, आर्यमंतु, नागहस्ति और धरसेन, पुप्पद्वारा प्रस्थापित नवीन गंगवाल राज्यकी पूर्वी सीमा तोंडेय- दन्त, भूतबलिका समय भी पहली शताब्दी ईस्वी ही माडु थी । तोंडेयनाडु या तोंडेयमडलम्का उदय ११० निश्चित होता है। उसके उपरान्त रहा मानने वाले विद्वान् के उपरान्त हुअा था। उसकी राजधानी कांचीका निर्माण. तो हैं किन्तु उससे पूर्व रहा प्रायः कोई भी नहीं मानता। विकास एवं प्रसिद्धि भी तभीसे प्रारम्भ हुई । यूनानी समन्तभद्रने अपना गंधहस्तिमहाभाप्य भूतबलिके पटम्बण्डागम भूगोलवेत्ता टालेमीकी साक्षीके अनुसार १४० ई. तक अथवा उमास्वामीके तत्वार्थाधिगम पर रचा था ऐसा माना जाता है। पूर्वीतटकी नागसत्ता विद्यमान थी और उस समय तांडेय (५) दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय-भेद तथा दक्षिणात्य मंडलका कोई अस्तित्व न था। १५०ई० के उपरान्त नाग- मलमंघका उपसंघों में विभाजन पहली शताब्दी ई. के उत्तसत्ताके विच्छिम होने पर एवं कांचीमें पल्लव वंशकी स्थापना रार्ध में हया था। जिन शिलालेखों (हुमच पंच बसदि होने पर उन नाम प्रसिद्ध हुए। श्रादि) को सिंहनंदिका समन्तभद्रके अन्वय या माक्षात् गंगवंशकी स्थापना तिथिके लगभग एक सौ वर्ष पीछे शिष्य-परम्परामें होनेके लिये प्राधार बनाया गया है उन्हींले जानेसे सुनिश्चित तिथियों एवं नाम तथा घटना समी- के समकालीन एवं समान थाशय वाले अन्य कई शिलाकरणों के आधार पर गंगवंशकी जो कालानुक्रमणिका स्थिर लेग्यों में सिंहनंदिको मूलमंघान्तर्गत कुन्दकुन्दान्वयके कागरकी जाती है यह सब विच्छिन्न हो जाती है और उसमें और उसमें गण, मेषपाषणगच्छका प्राचार्य सूचित किया गया है अपरिहार्य बाधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। (११२२ ई० का मिश्वर बदि हम्ब. ई. मी. VII)| प्राचार्य सिंहनंदिक समय-निर्णयका गंगराज्य स्थापन- सिंहनंदिके इनने निकट पूर्ववर्ती समन्तभद्रका भी यही की घटनाके अतिरिक्त और कोई अन्य सुनिश्चित अाधार गण, गच्छ प्रादि होना संभव है। किन्तु अर्हद्बलि द्वारा नहीं है और इस घटनाके आधार पर उनका समय दुसरी मूलसंघक प्रस्थापित नंदि, देव, सिंह, सेन, भद्र आदि शताब्दी ईलाक अन्तिम दशकस लेकर तीसरी शताब्दी भेदों में काणूर गणका कहीं पना नहीं चलता। इन गणई. के मध्य के बीच स्थिर होता है, उसके पूर्व नहीं। अतः गच्च प्रादिककी उत्पत्ति होने या उनक रूढ होने एवं शाखासिंहनंदिके पूर्वापरके अाधार पर समन्तभद्को पहली शताब्दी प्रशाखाग्राम बैटन लिय एक शताब्दीका समय भी ईस्वी में हुया सिद्ध करना न प्रमाण मंगत ही है और न थोडा ही है। युक्ति-संगत ही। (२) जहां तक श्वेताम्बर पटापलियांक १७ श्रादि इसके अतिरिक्त प्राचार्य समन्तभद्रको पहली शताब्दी पद्यर श्वेताम्बराचार्य सामन्तभद्रमूरिके साथ दिगम्बराचार्य ई० में हुमा मानने में और भी अनेक बाधाएँ है यथा- स्वामी समन्तभद्रका अभिमन्य सिद्ध करनेका प्रयत्न है, वह (१) बौद्ध विद्वान नागार्जुन कुषाणकालमें हुअा था निस्सार सा है । एक सम्प्रदायके विद्वानोंने दूसरे सम्प्रदायके और उसकी अंतिम ज्ञात तिथि १८१ई. है। समन्तभद्रका प्रतिभाशाली विद्वानोंकी प्रशंसा और उनके प्रति आदर उस पर और उसका ममन्तभद्र पर साक्षात् प्रभाव दृष्टि- प्रदर्शन तो बहुधा किया है, किन्तु अपने आम्नायके एक गोचर होता है। कट्टर समर्थक, पोषक एवं प्रभावक विद्वानको दूसरे सम्प्रदाय (२) अनुश्रुतियों एवं शिलालेखोंके अनुसार समन्त- द्वारा अपना लिये जानेके शायद ही कोई उदाहरण मिले, भद्र न केवल कुन्दकुन्द और उनके शिष्य कुन्दकीर्तिके, और जबकि उन्हें अपना लेने पर भी उनको किसी भी

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