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किरण ११-१२
समन्तभद्रका समय
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कृतिको न अपनाया जाये। एक नामके एक ही समयमें इस पट्टावलीमें उदारमना संकलनकर्ताने दिगम्बर-श्वेताम्बर एक ही सम्प्रदायमें एकाधिक विद्वानोंके होनेकी बात जैन भेदभावके बिना अपनी दृष्टि में श्री वर्धमान स्वामी प्ररूपित संवमें अनोखी नहीं है तब प्रायः एक ही समयमें दोनों ही शुद्ध धर्मके आराधक प्रमुग्व-प्रमुख अथवा विख्यात जैनाचार्योसम्प्रदायोंमें मिलने सुलते नामके दो विद्वानोंका होना असं- की एक कालक्रमानुसार सूची बनाई प्रतीत होती है। ऐसी भव नहीं है। प्रस्तुत अभिन्नलको सिद्ध करनेका प्रयत्न स्थितिमें उसे किसी विशेष पट्ट-परम्पराका सूचक मानना पहिले भी कतिपय विद्वानों द्वारा हो चुका है। किन्तु ऐसे भ्रमपूर्ण होगा और इसीलिये यही अधिक सम्भव है कि विचार या प्रयत्न यदेच्छा-सूचक मात्र ही हैं। यदि इस जिन जिन था वार्योका उन्होंने उल्लेख किया है उनके संबंध में अभिन्नत्वकी धोरीमें कुछ तथ्यांश मान भी लिया जाय तो जिम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निथिको उन्होंने परंपरा अनुश्र तिसे भी उक्त पदावलियोंक अनुसार समन्तभद्र का समय ११६ प्राप्त किया, उसे ही लिख दिया। किसीकी तिथि निधनकी ई. (वी. नि. सं०६४३) से लेकर १६८ ई. (वी. नि. सूचक हो सकती है, तो किमीकी पट्टारंभकी सूचका दीक्षासं ६६५) जो कि उनके पट्टशिष्यका समय सूचित किया समयकी सूचक, जन्मकी सूचक अथवा अन्य किसी विशेष गया है, तक चलता है और यह ममय हमारे द्वारा निर्णीत घटना या प्रभाषक कार्यकी सूचक भी हो सकती है। अतः समय (१२०-१८५१०) के साथ ही अधिक मेल खाता है। यह आवश्यक नहीं है कि समन्तभद्रकी तिथि (शक सं० (६) समन्तभद्र की तिथि सन् १३८ ई. (शक स ६०)
६०) उनके निधनकी ही सूचक हो, वह उनके दीक्षारंभकी
६०) उनक निधनका हा सूर प्रदान करने वानी जो पहावनी है, जिसे कई स्थलों पर भी सूचक हो सकती है जैसा कि हमारा अनुमान है। दिगम्बर पहावलीके नामसे उल्लम्बित किया गया है तथा उपरोक नथ्योंकी दृष्टिसे समन्तभद्रका समय दूसरी जिसे किमी श्वेताम्बर विद्वान द्वारा संकलित की गई बनाया शताब्दी ई० से पहले ले जाना, श्रथवा १२०-१८५ ई० से हे वह भंडारकरकी रिपोर्टमें संग्रहीन पट्टावलीसे अभिन्न जान अधिक इधर-उधर करना प्रमाण एवं युक्ति दोनोंसे बाध्य पड़ती है।
प्रतीत होता है।
सम्पादकीय नोटइस मारे लेखका मार अथवा फलिनार्थ इतना ही है देखा होता तो उसके सम्बन्ध में जो कल्पनाएँ लेखके कि स्वामी समन्तभद्र का जो समय शक सम्वन ६० (सन् अन्तिम भागमें की गई हैं उनके करनेका उन्हें अवसर ही १३८ ई.) प्रसिद्ध तथा एक पट्टावलीमें अंकित है वह प्राप्त न होता । वह पट्टावली साफ तौर पर किसी श्वेताम्बर उनका निधन-पमय न होकर उनकी दीक्षाका समय है। विद्वानके द्वारा ही संकलित की गई है और उसमें प्रायः परन्तु दीक्षाका समय है इसको स्पष्ट करके बतलाने वाला श्वेताम्बर-श्राचार्योक नामोंका ही उल्लेख है, नं. ६५ तक कोई भी प्रमाण लेखमें उपस्थित नहीं किया गया, जबकि गुरु या पह-परम्परा दी है, फिर अन्य घटनामोंका समयापावली में दिये हए अन्य समयोंकी दृप्टिसे वह प्रायः निधन- विकके साथ उल्लेख किया है। अस्तु । समय प्रतीत होता है। उदाहरणके तौर पर पहावसीम शक संवत् १०(सन् १३८ ई.)को समन्तभद्रका वीरके निवारण के १२ वर्ष बाद गौतमका ममय और भद- निधन समय मानने पर यह तो स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है बाह का १७० वर्ष बाद दिया है। ये दोनों ममय महावीर- कि वे इसाकी दमरी शताब्दीके भी विद्वान रहे हैं और के बाद उन श्राचार्यो के पट्टारोहण के समय न होकर उनके इसलिये विचारणीय लेखमें ईसाकी पहली-चूसरी शताब्दीके पट्ट-समयको समाप्तिके द्योतक हैं। पट्टावलियोंमें श्राम तौर स्थान पर यदि पहली शताब्दी ही छप गया है तो उसे पर पट्टारोहण अथवा पट्ट-समाप्तिका समय ही दिया होता लेकर यह प्रतिपादन करना तथा आपत्तिका विषय बनाना है-दीक्षाका नहीं । दीक्षाका समय जहाँ देना होता है वहाँ ठीक नहीं है कि मेरे द्वारा उस लेखमें समन्तभद्रका समय उ-का स्पष्ट रूपसे उल्लेख किया जाता है । लेखक महाशय- ईमाकी पहली शताब्दी ही सीमित किया गया है। लेखकने डा० भण्डारकरके द्वारा सन् १८८३-४ की रिपोर्टमें ने जो उन समयको दीक्षा-समय अनुमान किया है उसका प्रकाशित उक पट्टावलीको देखा मालूम नहीं होता, यदि प्रधान हेतु समन्तभद्रको नागार्जुनका उत्तरवर्ती बताकर