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३२.] अनेकान्त
[ वर्ष १४ थे- ब्रह्मचर्यव्रत परिग्रह-न्यागमें सम्मिलित था। महावीरने सम्प्रदायमें ज्यों-ज्यों वस्त्र-पात्रवादका जोर होता गया त्योंउसे अलग करके पांच महाबन कर दिये। तथा पार्श्वनाथ- त्यों 'अचेतक' शब्द का अर्थ भी बदलता गया । हरिभद्र'. का धर्म प्रतिक्रमण-रहित था-किन्तु महावीरका धर्म सूरिने नग्न जैसे स्पष्ट शब्द के उपचार नग्न और निरूपचरित सप्रतिक्रमण था। दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचारमें भी कहा है कि नग्न दो भेद करके कुचलवान साधुको उपचरित नग्न और भगवान् ऋषभदेव और महावीरके सिवाय शेप बाईप जिनकल्पीको निरुपचरित नग्न कहा है। इसी तरह अचेतीर्थकरोंने छेदोपस्थापना चारित्रका उपदेश नहीं दिया। लका अर्थ अल्पचेल और अल्पमूलचेल किया गया है। कारण यह है कि मामयिक वनमें दृषण लगने पर छेदोप- यही बान 'सान्तरोत्तर' शब्दक सम्बन्धमें भी हुई । अचेलका स्थापनाकी आवश्यकता होती है । किन्तु उस समयके अर्थ 'अल्पमूल्यचल' करने वाले टीकाकार नेमिचन्द्रने मनुष्य ऋजु और प्राज्ञ होनेके कारण व्रतमें दूषण नहीं 'सान्तरोत्तर' का अर्थ किया है-'पान्तर' अर्थात् वर्द्धमान लगाते थे। इसी उनके लिये प्रतिक्रमणकी भी आवश्यस्वामी के साधुनों की अपेक्षा प्रमाण और वर्ण में विशिष्ट, कता नहीं थी, क्योंकि लगे हुए दोषोंकी विशुद्धि के लिये और 'उत्तर' अर्थात महा मृल्यवान होनेके कारण प्रधान, प्रतिक्रमण किया जाता है । भ० ऋषभदेवके समय लोग ऐसे वस्त्र जिसमें धारण किये जाते हैं । इसका यह मतलब ऋजु किन्तु जड़ (अज्ञानी) थे और महावीरक समयके हा कि पार्श्वनायके माधुनोंको महा मृल्यवाले और चित्र मनुष्य वक्र (कुटिल) और जड़ थे। इसलिये आदि और विचित्र कपडे पहिनने की अनुशा धी और भ० महावीरक अन्तके तीर्थंकरोंके धर्मस शेप बाईस तीर्थंकरोंक धर्ममें कुछ साधु नोंको अल्पमूल्य वाले वस्त्र पहिनने की । किन्तु दोनों अन्तर होता है-मा श्वेताम्बर साहित्यमें लिखा है।
लिम हान्तिक नहीं हैं। उत्तराध्ययन सूत्रमें लिखा है कि जब पाव नाथकी प्राचारांग सूत्रक विमोक्षाध्ययनमें भी वस्त्रके प्रकरण परम्पराके अनुयायी केशीने गौतमसे प्रश्न किया कि भगवान् (सू. २०१ ) में 'संतस्त्तर' पद श्राया है। श्राचार्य महावीर और पार्श्वनाथका धर्म जब एक ही है तो क्या शीलांकने इसका अर्थ किया है-सान्तर है उत्तर-प्रोढना कारण है कि महावीरने अपना धर्म 'अचलका रखा और जिमका । अर्थात् जो वस्त्र को अवश्यकता होने पर प्रोढ़ता पाच नाथने 'सान्तरोत्तर' ? नब गौतमने उसर दिया भगवान
है और फिर उतार कर पाममें रख लेता है। अंचलकके पार्श्वनाथके समयके मनुष्य मरल और बुद्धिमान् थे, भग
वास्तविक अर्थ वस्त्र-रहितके साथ इस अर्थकी संगति ठीक वानका ठीक-ठीक श्राशय समझते थे और उसमें अर्थका
बैठ जाती है। महावीर स्वामीका धर्म अचेलक था उनक अनर्थ नहीं करते थे। किन्तु भगवान महावीरके समयके
साधु निर्वस्त्र रहते थे और पार्श्वनाथका धर्म 'मान्तरोत्तर' मनुष्य मन्दबुद्धि और कुटिल हैं अतः भगवान्ने स्पष्ट
था, उनके साधु आवश्यकता होने पर वस्त्र प्रोढ लेते थे। रूपसे अपने धर्मको 'अचेलक' रक्खा । हरिभद्रमरि ने इसीलिये श्वेताम्बर साहित्यमें महावीरके धर्मको श्रचेल 'पञ्चाशक' में भ० महावीरक धर्मको 'दुरनुपालनीय' बत. और पार्श्वनाथके धर्मको संचल और अचेल कहा है। वस्त्र नागासा
को धारण करने के तीन कारण बतलाये हैं। एक ही-प्रत्यय, हुए लिखा है-अन्तिम जिनके साधु वक्रजड होते हैं जिम- लज्जाक कारण, एक जुगुप्सा-प्रत्यय-लिंग दोप होने पर तिस बहानेसे हेय पदार्थोका भी सेवन करते हैं।
लोकनिन्दाके कारण और शीतादि परीषहके कारण । श्रतः अतः पार्श्वनाथ और महावीरके धर्ममें यदि कुछ अन्तर
२-पाचारांग सू. १८२ टीका शीलांक में। था तो पालक मनुष्योंकी मनःस्थितिके कारण ही अन्तर
३-अल्पमूल्यं चेलमप्यचेलम्-उत्तरा० टी० नेमिथा-अभिप्रायमें कोई अन्तर नहीं था। चूंकि प्रकृत चर्चा चन्द्र पृष्ठ १७॥ वस्त्रके सम्बन्धमें है अतः उसे ही लेना उचित होगा।
४-सान्तरमुत्तरं प्रावरणीयं यस्य स तथा, चित्प्राकेशी-गौतम-संवादमें महावीरके धर्मको 'अचेलक' और
वृणोति कचित् पार्श्ववनि विभति। पानाधके धर्मको 'सान्तरोत्तर' बतलाया है। श्वेताम्बर
१ तिहि ठाणेहिं वरथं धरिज्जा-'होरिवत्तिय दुगुच्छा-दशवकालिक टीका।
वत्तियं, परीसहवत्तिय ।