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किरण ११-१२] विचार-कण
[ ३९३ हो सकता है कि अपने अनुयायियोंको सरल हृदय और डालकर उसे आगे कर लेते थे। मथुराके कङ्काली टीलेसे जो विवेकशील समझकर पार्श्वनाथने उक्त तीन स्थितिमें वस्त्र आयाग पट्ट मिला है उसमें एक माधुकी मूर्ति है बनी जो धारण की आज्ञा दे दी हो। किन्तु स्वयं तो वे महावीरकी बायें हाथ में एक वस्त्र खंडके द्वारा अपनी नग्नताको छिपाये तरह अचेलक-नग्न दिगम्बर ही रहे थे-जैसा कि जिनभद्र- हुए है । उसे, आर्य' कण्डको मूर्ति कहा है और सम्बत् १५ गणिने अपने विशेपावश्यक भाष्य में सभी तीर्थङ्करोंके की बतलाई है । यह श्रार्यकएह वे ही जान पड़ते हैं जिनके लिये लिया है कि ये वैसे तो वस्त्र-पात्र ग्रहण नहीं करते, पास शिवभूतिने दीक्षा ली थी। चूंकि मथुराले प्राप्त शिलाकिंतु मवस्त्रतीर्थका उपदेश देनेके लिये एक वस्त्र ग्रहण लेखोंमें जो प्राचार्य प्रादिके नाम पाये हैं वे श्वेताम्बर कल्पकरते हैं और उसके गिर जाने पर अचेलक हो जाते हैं, सूत्र के अनुसार हैं, अतः उक्त मूर्ति श्वेताम्बर साधु कण्ह अस्तु ।
____ की हो सकती है और ऐसी स्थितिमें यह मानना होगा कि ___फिर भ० महावीरके समयमें पार्श्वनाथको हुए २५० वर्ष विक्रमकी प्रथम शतीमें श्वेताम्बर साधु भी एक तरहसे हो गये थे। अत: यह भी संभव है कि इतने समयमें उनके नग्न ही रहते थे। उसके पश्चत् ही वस्त्रकी वृद्धि हुई । अनुयायी साधुओं में भी शिथिलाचार आगया और यद्यपि हरिभद्रसूरिने सबोधप्रकरणमें अपने समर्थक शिथिलाचारी उन्होंने महावीरका धर्म अंगीकार किया, किन्तु शिथिलाचार- साधुओंकी चर्चा करते बतलाने हुए लिखा है कि वे बिना की प्रवृत्ति न गई हो और आगे चलकर उनक संसर्गने ही कारण कटिवस्त्र बाँधते हैं। विशे० भा० (गा. २५६६) की महावीरके साधु-संघमें मी वस्त्रकी पोर अभिरुचि उत्पन्नकी टीकामें मलयगिरिने लिखा है कि माधु कांछ नहीं लगाते, हो । कुछ दशी और विदेशी विद्वानोंका भी ऐसा विचार है। दोनों कूपरोंके अग्र भागम ही चोल्लाहक धारण करते हैं। भद्रबाहुके समयमें दुर्भिक्षकी भयानकतासे उक्त प्रवृत्तिको अतः विक्रमकी पाठवीं शतावे और उसके बाद भी श्वेताप्रोत्साहन मिलना तो साधारण बात है । अत: उस समय म्बर धुपायों में वस्त्र का अनावश्यक उपयोग नहीं होता था। मानसिक प्रवृत्तिका बाह्य रूप लेलेना असंभव नहीं है। किन्तु धीरे धीरे उसमें वृद्धि होती गई और इस तरह जैन
हरिषेणकी कथा बनलाती है कि पहले अर्धफालकके धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायमें विभाजित रूपमें वम्त्रकी प्रवृति पाई। अर्थात् बायें हाथ पर वस्त्र होगया । २ गाथा २५८१-२५८३ ।
१-२ देखो जैन माहिन्यनो इतिहासमें लगा चित्र, पृ. १२४
विचार-कण ससारमें दुःखादिका कारण परिग्रह पिशाच है। यह उसका खेद मत करो। उममें निजत्वकी कल्पना भी जहाँ आया अच्छे अच्छे महापुरुषोंकी मति भ्रष्ट मत करो। करदेता है। परिग्रहकी मूर्छा इतनी प्रबल है कि परकी आलोचनासे सिवा कलुपताके कुछ हाथ
आत्माको आत्माय ज्ञानसे वंचित कर देती है। जब नहीं आता। परन्तु अपने उत्कर्षको व्यक्त करने की तक इसका सद्भाव है आत्मा यथाख्यातचारित्रसे वंचित जो अभिलाषा है वह दूसरोंकी आलोचना किये बिना रहता है । अविरत अवस्थासे पार होना कठिन है। पूर्ण नहीं होती। उसे पूर्ण करने के लिये मनुष्य जब
जब परिग्रह नहीं तब कलुपित होनेका कोई करण परकी आलोचना करता है तब उमके ही कलुष। नहीं। किन्तु वास्तव में देखा जाये तब हमने परिग्रह परिणाम उसके सुगुण घातक बन बैठते हैं। त्यागा ही नहीं । जिमको त्यागा वह तो परिग्रहही नहीं। निंदामें विषादका होना और प्रशंसामें हर्पका वह तो पर पदार्थ है उसको त्यागना ही भूल है। होना तो प्रायः बहुत मनुष्योंको होता है परन्तु हमको उनका तो आत्मासे कोई सम्बन्ध ही नहीं । आत्मा तो तो निन्दा ही अच्छी नहीं लगती। और प्रशंसा दर्शन ज्ञान चारित्रका पिण्ड हैं। उस मोहके विपाकसे भी खेद होता है। वास्तव में ये अनात्मीय धर्म हैं कलुषता आती है वह चारित्र गुणको विपरिणति है इसमें रागद्वप करना सर्वथा वर्जनीय हैं। उसे त्यागना चाहिये । उसका त्याग यही है परन्तु
-वर्णी वाणीसे