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अनेकान्त
[वर्ष १४
इस विषयमें जो कुछ लिम्वा गया है वह भी इसी दृष्टिकोण- है। तथा दुर्भिक्षके कारण भद्रबाहु तथा साधु संघके देशान्तर से लिखा गया है। किन्तु विचार-शील पाठकोंको यह गमनकी भी चर्चा है, किन्तु उसके लेखकके अनुसार भद्रबाहु समझानेकी श्राश्यकता नहीं है कि दोनों सम्प्रदायोंका नेपाल चले गये थे। प्रस्तु, जो कुछ हुआ हो, किन्नु इतना
आविर्भाव समकालीन है, उनमेंसे कोई एक न अर्वाचीन सुनिश्चित है कि श्रु तकेवली भद्रबाहु के समयमें बारह वर्षका है और न दूसरा प्राचीन । क्योंकि इन दोनों सम्प्रदायोंके भयंकर दुर्भिक्ष पड़ना और भगबाहु तथा साधुसंघका देश अविर्भावसे पहले जैन तीर्थक्करोंके द्वारा प्रतिपादित धर्म त्यागकर अन्यत्र चले जाना दोनों परम्पराओंको मान्य है जैनधर्म या पाहतधर्म कहा जाता था। न उपके साथ दिगम्बर और इसमें कोई मत भेद नहीं । दुर्भिक्षके बाद संघ-भेद कसे विशेषण जुड़ा हुआ था और न श्वेताम्बर विशेषण । अतः हुआ। इसके सम्बन्ध में हरिपेण-कृत वृहत्कथाकोशमें तथा जिस दिनसे उस एक पक्षने दिगम्बर जैनधर्म कहना प्रारम्भ देवसेनकृत भावसंग्रहमें वर्णन पाया जाता है। दोनों ही ग्रन्थ किया उसी दिनसे अपर पक्ष उसे श्वेताम्बर जैन धर्म कहने विक्रमकी दसवीं शतीके रचे हुए हैं, किन्तु दोनों के वर्णनमें लगा। और इस नरहसे भगवान ऋषभदेवसे लेकर महावीर बहुत अन्तर है। भावसंग्रहका वर्णन साम्प्रदायिक अभिपर्यन्त श्रवण्ड रूसे प्रवाहित होने वाली जैनधर्मकी धारा निवेशको लिये हुए है किन्तु कथाकोशमें दत्त भद्गबाहुकी महावीर भगवान के पश्चात् दो खण्डों में विभाजित होगई। कथामें तथ्यकी झलक है। कथाका उत्तरार्ध इस प्रकार है
वह कब विभाजित हुई और कसे विभाजित हुई, ये सभिक्ष होने पर भगवाहुका शिष्य विशाग्याचार्य अपने प्रश्न जैनधर्मके इतिहासमें बड़े महत्त्वके हैं, किन्तु इनका संके साथ दक्षिण पथसे लौट आया और रामिल्ल, स्थविर निश्चित उत्तर खोज निकालना भी सरल नहीं है। फिर
स्थूलभद्र सिन्धुदेशसे लौट आये। सिन्धुदेशसे लौटनेवालोंभो जनधर्मक अभ्यामियोंके लिये इन प्रश्नों पर प्रकाश
ने बतलाया कि वहांके श्रावक दुर्भिक्ष पीदिनोंके भयसे गत्रिमें डालनेका प्रयत्न किया जाता है । दिगम्बर-परम्पराके अनुसार
भोजन करते थे और उनके प्राग्रहसे हम लोग रात्रिमें जाकर यह विभाजन मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त के राज्य त्यागनेके पश्चात् भोजन ले पाते थे और दिनमें बाते थे। एक दिन रात्रिमें हुया। उस समय तक जैनधर्मकी धारा अखण्ड रूपमें
जैसे ही एक क्षीणकाय निर्ग्रन्थ साधुने एक श्रारक घरमें प्रवाहित थी और उसके एकमात्र नायक श्रुतकेवली भद्रबाहु
प्रवेश किया उसे देखकर एक गर्भिणी स्त्रीका भयवश गर्भथे। श्रतकेवली भद्रबाहुकं समयमें उत्तरभारतमें बारह वर्ष पात होगया। तब श्रावकोंने साधुओंसे प्रार्थना की कि आप तक भयंकर दुर्भिक्ष पडा, अनः भद्रबाहु एक बहुत बड़े दक्षिण हाथमें पात्र लेकर बाएँ हाथसे अर्धफालक (वस्त्रमुनिसंघके साथ दक्षिण देशको प्रस्थान कर गये । सम्राट्
खण्ड ) को आगे करके भोजनके लिये पाया करें। तबसे चन्द्रगुप्त भी राज्य न्याग कर उनके साथ चले गये। वहां
हम अर्धफालक धारण करते हैं। उन्हें समझाने पर कुछ वनमान मंसुर राज्यके श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर
अर्धफालक छोड़कर पूर्ववत् निर्ग्रन्थ होगये और कुछ नहीं भद्रबाहुका मंन्याम मरण होगया। चन्द्रगिरि पर्वत (श्रवण
माने। उन्होंने दो भेद कर दिये-एक जिनकल्प और एक वेलगोलामें स्थित) पर उत्कीर्ण शिलालेखोंमें इस घटनाका
स्थविरकल्प। इस तरह शक्रिहीन कायरोंने नये पन्थको विवरण दिया हुआ है और पुरातत्वविदोंने उसे ऐति- जन्म दिया। सौराष्ट्र दशके वल्भीपुराकी रानी अर्धफालकाहासिक सत्यके रूपमें स्वीकार किया है।
की बढ़ी भक्त थी। एक दिन राजाने अर्धफालक साधुओंको श्रतवली भद्रबाहके समयमें वारह वर्षका भयंकर देखकर कहा कि या तो आप लोग निग्रन्थ हो जाय, या दुर्भिक्ष पड़नेकी घटनाका वर्णन श्वेताम्बरर साहित्यमें भी अपने शरीरको वस्त्रसे बेष्ठित करलें । राजाके कहनेसे -भारतका प्राचीन इतिहास ( वी. स्मिथ ) तृतीय।
उन्होंने वस्त्र-धारण कर लिया और काम्बल तीर्थ स्थापित संस्करण, पृ. १४६ । मि. राईस द्वारा सम्पादित 'श्रवण
होगया । इसी काम्बल तीर्थसे दक्षिणा पथके सावलिपत्तन बेलगोलके शिलालेख' । जर्नल आफ विहार उड़ीसा रिसर्च '
नगरमें यापनीय संघ उत्पन्न हा । देवसेनने भी वलभी सोसायटी, जिल्द ३ में स्व. के. पी. जायसवालका लेख।
पा. जायसवाजका लेख। छत्तीले वारिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्म । २-परिशिष्ट पर्व, सर्ग, श्लो.१५.१८।
सोरट्ठ वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो ॥१॥दर्शनसार