Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 354
________________ सन्देह (श्रीजयन्तीप्रसाद शास्त्री 'रल') सन्तानके लिए नारीका हृदय कितना अशान्त यही विचार पं० रमाशंकर और उनकी धर्म रहता है, सूना रहता है, उसमें बिना सन्तानके कोई पत्नी सुशीलाके हृदयमें बार-बार पाकर उमंगोंको रस नहीं, जीवन ही भार हो जाता है। नारी सूना बनाये हुए थे। उनके विवाहको आज ठीक जीवनकी, सफलता एवं शोभा ही सन्तान है, सन्तान- अठारह वर्ष हो गये थे। उनकी अवस्था भी अड़का न होना पति और पत्नीके सुखमय जीवनमें तीस वर्ष की हो चुकी थी । घर-बार धन-धान्यसे कसक बनकर खटकता रहता है । यहाँ तक कि परिपर्ण होते हए भी जीवन बेकार-सा लगता था। गरीबकी झोपड़ी तथा धनिकोंके राजमहल सभी कभी-कभी सुशीला छोटे-छोटे बच्चोंको देखकर कुछ बेकार हैं। बड़ा ही आनन्द मानती थी, पर देखते-देखते ही तसु मंत्री संगि लीध, हिव पंथड़ कर, डाल इकतीसाकीबहु दुख जंजालहं भरयड ए, जेठ नवमी रे वदि माल्या राजगृही, खाल नान सुविसाल, वन अंगी घणी, पंच परवत रे पेल्या गढ सेती बही। देखी कायर मन डरायड ए॥२॥ वेभारह बंधा बावन जिणहरु, ऊँचा रूस भनेक, दुइ दिसि गर, धन सालिभद्र रे वीर इग्यारे गणहरू। मयगत माता मद मरह ए, गणहरू पगला, नम्या रोहण, गुफा थी दूरह पका घटवाला विकराल, भूमी अ भोलड़ा, गिरि विपुल प्राइक, उदह जिणहर, ____टोला मिलि पाढा फिर ए। कनक गिरि सोलह पछह । सीह हीरानंद साह, तसु वंचित दिइ, दुइ रतनि हिव पोसाल सालिभद्र, कूत्रा हेठि मनोहरा पसुकी परिते सहु गया ए, मुनि सोबत वीसम सामि जिण चंद, जनम करि सोभछरा हिव निरभय पाणंदि, तीरपि प्राविना, वडगामई रे, गौतम गणधर थंभ छह, देखत दुख हरह थया ए॥१३॥ दिन दस-करीम मुकाम, दुइ पालगंज मइ, बहु जिणहर रे, बहु बिंब तिहां पूज्यां पछछ । तसु राजा संतोषिमा ए, पुर पट्टणि रे, पनहर दिन भावी रही, हय वर बहु धन दोष, सुदि वयसाख की, पहिराज्यउ रे, सयन संघ साहइ सही। चवदिसि दिवसिड पोषिमा ए। साहह सही हिव तिहांधकी चति.जोगपरिसंघ प्राविना प्राति वख्यागिरि गि, रंगई पेखिमा, इक चैत्य बहु बिंब साथि सामी, पास जिण माविमा । वीस टूक सोमानिखा ९, हिवे तिहां थकी चलि संघ सिगला, निज नगरि निज-निज धरह अदभुत विद्य अनेक, वीस जिणेसर, पाणंदि उछरंगि तुरत पहुता, कुसब खेमइं सादरई ॥१७॥ पूज्या बंद्या पावताए ॥ दोहा-अधइ पणमुपंच जिण, रयणपरी भ्रमनाथ । विषय कषाय अठार, पातक थान ९, सोरीपुरि हथणाउरई अहिछति पारसनाथ ॥१८॥ मोह मिथ्यातइं भव भवइ ए, हम सोलसइंइक सठा वरसई, बहुत तीरथ वंदिया, कीधा पाप अपार, ते तिकरय सूधा, परदेस पूरवका अपूरव, भविकजण प्राणंदिया। मिच्छ दूकड़ मुक हिवाए। इम पालोह पाप, जनम सफल करी, सिरि तेजसार सुसीस मावई, वीर विजय पयंपए, निवादा पथि पाला बल्या ए, नित पढ़त गुणतां हुवह मंगल, मिलइ नवनिधि संपए॥१॥ विचि इक पटवी बार, कोस मजल पिच, इति श्रीसम्मेतशिखरचेतपरवारिस्तवन समाप्तं । सुखि बंधी दुख निरादरला ए॥२॥ कमाईदास लिखतं ॥

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