Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 351
________________ किरण १०] क्शाकुन्दकुन्द भद्रबाहु अलकेवलीके शिब नहीं है। [२६८ - फिर तुम उनके शिष्य कैसे हो सकते हो, संभवतः इसी भी योग्य नहीं थे, अथवा कोई अन्यही कारण है। लिए उन्हें रवीं गाथा रचकर स्पष्ट करना पड़ा किये बाचार्य कुन्दकुन्दको दोनों परम्परामोंमेंसे किसी भी परम्परामेरे दीक्षागुरु नहीं है, किन्तु ज्ञानगुरु है। के प्राचार्यत्वके अयोग्य होनेकी तो कल्पना की नहीं जा खोग कुन्दकुन्दको द्वितीय भद्रबाहुका शिष्य सिद्ध सकती. क्योंकि उनके अन्य ही इस बातके सबसे बड़े साक्षी करने के लिए यह भापति उपस्थित किया करते हैं कि यदि हैं कि वे एक महान् भाचार्य हुए है। फिर दूसरा क्या कुन्दकुन्द प्रथम भद्रबाहुके शिष्य थे, तो फिर उनके पश्चात् कारण हो सकता है, इस मुद्दे को लेकर अब हम कुन्दहोने वाली श्रुत-परम्परा या प्राचार्य-परम्परामें उनका नाम कुन्दाचार्यकी संभवतः सबसे पहली रचना मूलाचारकी क्यों नहीं दिया गया। इन दोनों शंकाओंका भी समाधान छानबीन करते हैं तो हमें इसका समाधान बहुत अच्छी उपयुक्त विवेचनसे भलीभांति हो जाता है, प्राद-यतः तरह मिल जाता है। भद्रबाहु के स्वर्गवासके समय कुन्दकुन्द अल्पवयस्क थे और मूलाचारके समाचाराधिकारकी १५५वीं गाथा-द्वारा यह संभवतः उस समय तक वे अंगों और १० पूर्वोके पूर्ण प्रकट किया गया है कि साधुको उस गुरुकुल में या संघमें वेत्ता नहीं हो सके थे, अतः स्वयं भद्रबाहुने या संघने नहीं रहना चाहिये जिसमें कि प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, श्रुतगुरुके रूपमें विशाखाचार्यको जोकि उस समय अंग स्थविर और गणधर, ये पांच भाधार न हों। तदनन्तर पौर १० पूर्वोक वेत्ता और वयोवृद्ध थे प्रतिष्ठित कर दिया। १५५वी गाथामें उन पांचों आधारोंके लक्षण दिये हुए हैं। तथा भद्रबाहु के पश्चात् उनके साक्षात् दीक्षित शिष्यों में भी पाजले तीन वर्ष पूर्व अनेकान्त में प्रकाशित अपने लेखोंसे उनका उल्लेख नहीं किया जा सका, क्योंकि ये अन्य मैं यह प्रमाणित कर चुका है कि मूलाचारके कर्जा प्राचार्य प्राचार्यसे-श्रुतसागरके उल्लेखानुसार जिनचन्द्रसूस्सेि- कुन्दकुन्द ही है और वे उपयुक्त पांच प्राधारों से प्रवर्तक दीक्षित थे। पदके धारक थे, यह बात भी उनके वट्टकेराचार्य (वर्तकउपयुक्र कारणोंसे ही उनका नाम, भद्रबाहुके पश्चात् एलाचाय) नामसे सिद की थी। मूलाचारमें वर्तक या न तो श्रु तावतार-प्रतिपादक ग्रन्थों में ही मिलता है और न प्रवर्तकका अर्थ संघ-प्रवर्तक किया है, और वृत्तिकारने गुरु-शिष्यरूपसे दीक्षाचार्योंकी पहावलियों में ही। और यह 'वर्यादिमिल्पकारक' अर्य किया है। तदनुसार आचार्य इम पहले बतलाही चुके हैं कि दोनों प्रकारके प्राचार्य- कुन्दकुन्द संभवतः भद्रव हुके जीवन-काल में ही इस प्रवत्तकपरम्पराकी तीन पोड़ियां बीतने तक भी संभवत कुन्दकुन्दा- के पद पर आसीन हो गये थे। और यह पद उन्हें इतना चार्य जीवित रहे हैं। साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि अधिक पसन्द माया प्रतीत होता है कि उन्होंने उसे जीवन अपने जीवन के अन्त तक दोनों परम्परामोंमेंसे किसी भी पर्यन्त स्वीकार किये रहने में ही दिगम्बर-परम्पराका कल्याण परम्पराके प्राचार्यपदका भार उन्होंने नहीं सम्हाला। समझा। अथवा तात्कालिक संघने उन्हें उस पर भासीन यहाँ यह पूछा जा सकता है कि यदि आपकी उक रहनेके लिए जीवनान्त तक बाध्य किया और अपने कल्पनाको सत्य मान लिया जाये तो दोनों परम्परामों से जीवन-पर्यन्त मुनिसंघकी बागडोर अपने हाथमें लेकर उसका किसी भी परम्पराके प्राचार्य-पदको स्वीकार न करनेका क्या सम्यक् प्रकारसस कारण हो सकता है ? क्या वे उन दोनोंमेंसे किसी एकके इस प्रकार उपयुक्त विवेचनसे यह सिद्ध है कि भन्ने ही कुन्दकुन्दका नाम भद्रबाहुके तुरन्त बाद ही उनकी ७ वयावृद्ध कहनका कारण यह है कि विशाखाचार्य साक्षात शिष्य-परम्परामें होने वाले प्राचार्योंके भीतर न मद्रपाहुके स्वर्गवासके पश्चात् केवल १० वर्ष ही जीवित मिलता हो, पर उससे उन्हें प्रथम भगवाहुके साक्षात् शिष्य __ होनेमें कोई बाधा नहीं पाती। विद्वानोंकी सेवामें भावश्यक निवेदन अवपंचमीके दिन आप अपने यहाँक शास्त्र-मंगरों की बान-कीन कीजिये, जो नवीन अन्य मि., उनले हमें सम्बित कीजिए और जिन जीर्ण-शीर्थ पुराने खंडित पत्रोंको कार समककर प्रसग बस्ते में बंध रक्षा हो, उन्हें समाजकी अनुमति कर हमारे पास मेजिये। अधिष्ठाता-श्रीकार्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429