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१६४] अनेकान्त
[वर्ष १४ संचालन प्रधान रहता है। और यह प्रत्येक शास्त्राभ्यासी स्तोत्र-पाठसे भी जपका माहात्म्य कोटि-गुणित बतलाया जानता है कि बाहरी द्रव्य क्रियाओंसे भीतरी भावरूप गया है। इसका कारण यह है कि स्तोत्र पाठमें तो बाहिरी क्रियाओंका महत्व बहुत अधिक होता है। अमनी पचेन्द्रिय इन्द्रियों और वचनोंका व्यापार बना रहता है, परन्तु जपमें तिर्यच यदि अत्यधिक संक्लेश-युक्त होकर भी मोह मका उस सबको रोक कर और परिमित क्षेत्रमें एक श्रासनस बन्ध करे, तो एक हजार मागरसे अधिकका नहीं कर सकेगा, अवस्थित होकर मौन-पूर्वक अन्तर्जल्पके साथ पाराध्यके जब कि संशी पंचेन्द्रिय साधारण मनुप्यकी तो बात रहने नामका उसके गुण-वाचक मन्त्रोंका उच्चारण किया जाता दें, अत्यन्त मन्दकषायी और विशु. परिणामवाला अप्रमत्त- है। अपने द्वारा उच्चारण किया हुया शब्द स्वयं ही सुन संयत साधु अन्तः कोटाकोटी सागरोपमकी स्थितिवाले सके और समीपस्थ व्यक्ति भी न सुन सके, जिम्पक उच्चारण काँका बन्ध करेगा, जो कि कई करोड़ सागर प्रमाण होता करने हए ओंठ कुछ फरकनेम रहें, पर अक्षर बाहिर न है। इन दोनोंके बंधनेवाले कर्मोकी स्थितिमें इतना महान् निकले, ऐसे भीतरी मन्द एवं अव्यक्त या प्रस्फुट उच्चारणको अन्तर केवल मनक सद्भाव और प्रभावके कारण ही होता अन्तर्जल्प कहते हैं। व्यवहार में देखा जाता है कि जो व्यक्ति है। प्रकृतमें इसके कहनेका अभिप्राय यह है कि किसी भी सिद्धचक्रादिकी पूजा पाठमें ६-६ घंटे लगातार खडे रहते हैं, व्यकि-विशेषका भले ही वह देव जैसा प्रतिष्ठित और महान वे ही उसी मिद्वचा मंत्र जप करने हए याध घंटमें ही क्यों न हो-स्वागत और सकारादि ना अन्यमनस्क होकर घबरा जाते हैं श्रायन डांवाडोल जाता है, और शरोरये भी संभव है, पर उसके गुणोंका सुन्दर, परम और मधुर पसीना झरने लगता है। इसमें सिद्ध होता है कि पूना-पाठ शब्दोंमें वर्णन अनन्य-मनस्क या भक्रि-भरित हुए विना और स्तोत्रादिक उच्चारणमे भी अधिक इन्द्रिय-निग्रह जप संभव नहीं है।
करते समय करना पड़ता है और इसी इन्द्रिय-निग्रहके यहां यह एक बात ध्यानमें रखना आवश्यक है कि कारण जपका फल स्तोत्रस कोटि-गुणित अधिक बतलाया दूसरेके द्वारा निर्मित पूजा-पाठ या स्तोत्र-उच्चारणका उक्र गया है। फल नहीं बतलाया गया है। किन्तु भक-द्वारा स्वय निमित जपसे ध्यानका माहा-म्य काटि-गुणिन बतलाया गया है। पूजा, स्तोत्र पाठ श्रादिका यह फल बतलाया गया है। इसका कारण यह है कि जपमें कमसे कम अन्नजल्परूप पुराणोंके कथानकोस भा इसी बातकी पुष्टि होती है। दो वचन-व्यापार तो रहता है, परन्तु ध्यानमें तो वचन-व्यापारएक अपवादों को छोड़कर किसी भी कथानकमें एकवार पूजा को भी सर्वथा रोक देना पड़ता है और ध्येय वस्तुक स्वरूपकरनेका वैसा चमत्कारी फल दृष्टिगोचर नहीं होता, जैमा चिन्तनके प्रति ध्यानाकी एकाग्र चित्त हो जाना पड़ता है। कि भनामर, कल्याण-मन्दिर, एकीभाव, विषापहार, स्वयम्भू मनमें उठने वाले मंकल्प-विकल्पोंको रोक कर चिनका स्तोत्र आदिके रचयिताओंको प्राप्त हुआ है। स्तोत्र- एकाग्र करना कितना कठिन है, यह ध्यानक विशिष्ट काम्योंकी रचना करते हुये भक-स्तोताक हृदयरूप मान- अभ्यामी जन ही जानते हैं। 'मन एव मनुष्याणां सरोवरसे जो भक्रि-सरिता प्रवाहित होती है, वह अक्षत- कारणं बन्ध-मोक्षयोः' की उक्तिक अनुमार मन ही पुष्पादिके गुण-बखान कर उन्हें चढ़ाने वाले पूजकके संभव मनुष्योंके बन्ध और मोक्षका प्रधान कारण माना गया है। नहीं है। पूजकका ध्यान पूजनकी बाह्य सामग्रीको स्वच्छता मन पर काबू पाना अति कठिन कार्य है। यही कारण है मादि पर ही रहता है, जबकि स्तुति करनेवाले भनका ध्यान कि जपस ध्यानका माहात्म्य कोटि-गुणित अधिक बतलाया एकमात्र स्तुत्य व्यक्तिके विशिष्ट गुणोंकी ओर ही रहता है। गया है। वह एकाग्रचित्त होकर अपने स्तुत्यके एक-एक गुणका वर्णन ध्यानसे भी लयका माहात्म्य कोटि-गुणित अधिक मनोहर शब्दोंके द्वारा न करनेमें निमग्न रहता है। इस बतलाया गया है । इसका कारण यह है कि ध्यानमें किसी प्रकार पूजा और स्तोत्रका अन्तर स्पष्ट लक्षित हो जाता एक ध्येयका चिन्तन तो चालू रहता है, और उसके कारण है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि पूजा-पाठोंमें प्रात्म-परिस्सन्द होनेसे कर्मास्रव होता रहता है, पर लयम अष्टकके अनन्तर जो जयमाल पढ़ी जाती है, वह स्तोत्रका तो सर्व-विकल्पातीत निर्विकल्प दशा प्रकट होतो है, ममताही कुछ अंशोंमें रूपान्तर है।
भाव जागृत होता है और प्रान्माके भीतर परम पाल्हाद