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२०४] अनेकान्त
[वर्ण १४ आत्म-विकासके लिये प्रोत्साहित किया है।
वृहस्पतिवारको निर्मित हुई है, जैसा कि अन्तके निम्न अन्यके अन्तिम दो पद्य इस प्रकार हैं:
द्वितीया पद्योंसे प्रकट है:जह न जगन न जन्म मरण जत्थ पणि वाहि-वेक्षण, श्रीमत्साहि-अवम्बरम्य नृपते राज्ये सतो सम्मते, जह न देह न न नेह यातिमइ न हठह चेयण।
शाके विक्रम साहि-साधु विदिते संवत्सरे पावने । जह सुक्ख अनंत ज्ञान दंसण अवलोकहि, तत्राप्यत्र शतंन पोडशवरे अष्टे (अब्देच) षट्त्रिंशके, काल विएस्सइ सयल सुद्ध पुणिकालह खोवइ । मामे चैत्र-विचित्र-पक्ष-प्रथमे सारे द्वितीयादिने ॥२२॥ जह वन्न न गंध न रस फरस सबद भेद नहि किह लह्यो।
वृहस्पति-गुणाधार वारे याग-शुभे वरं। बूचिराज हे श्रीरिसह-निण सुथिर होइ तहं ठहरह्यौ
केवलज्ञान-मरस्य चरित्रं रचितं शुभम् ॥२३॥ राइ विक्कमतणों संवत नव्बासीय पनरसइ सरदरुत्ति आसु वखाणु।
हम एजामें विशुच्चर श्रादि उन पाँचसौ मुनियोंकी तिथि पडिवा सुकल पख सनीचरवार
पूजा भी शामिल है जो श्रीजम्बूस्वामीके साथ ही दीक्षित
___ कर णिखत्त जाणु। हुए थे । पाँचसी मुनियोंके अलग-अलग नाम स्तुति तिनु दिन वल्ह जु संठग्यो मयण-जुज्म सविससा सहित देकर अर्घ चढाये गए हैं। और यह इस पूजाकी पढत सुणत रिक्खा करो जयो स्वामिरिसहेस ॥५७n सबसे बड़ी विशेपता है। इस पूजाले कर्ता पडित 'मोदक'
इनमेंसे पहले पद्यमें श्री ऋषभदेवकी निर्वाणावस्थाका हैं। जिन्हें कहीं कहीं 'लाडनू” नामसे भी उल्लेखित किया वर्णन है, जो उन्होंने मोह-शत्रके पुत्र और प्रधान सेनापति गया है । दोनों नामके सूचक कुछ वाक्य इस प्रकार हैं:मदन तथा मोह और अन्य सब अंतरंग शत्रुओंको जीत कर जंपइ कइ लाडनु निपुण देव ! प्राप्त की थी और जिसमें जरा, जन्म, मरण, वेदना देह, हउं करद-निरंतर तुझ सेव । (पत्र ३,२६) नेह आदि किसी भी कष्टदायी वस्तुका सम्बन्ध नहीं रहता।
चरित्रं भव्य-जीवानां, मंगलं वितनोतु वै। तथा अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त
धीमता मोदकाख्येन, रचितं पुण्यकारणम् (पत्र२७) वीर्य प्रकट हो जाते हैं। तब आत्मा पुद्गलके सम्बन्धसे इस पूजाकी रचना पद्यपि साह टोडरने कराई है परन्तु रहित होकर अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थिर हो जाता है और उसमें दासमल्लकी प्रेरणा भी हुई है जिसका उल्लेख वर्ण, रस, गंध, स्पर्श तथा शब्दके भेदोंसे मुक्त हो जाता है। ग्रंथकारने निम्न पद्योंके द्वारा किया है :--
इस ग्रन्थकी रचना अनेक छन्दोंमें की गई है। कविता तहविह मइ पंडियदासमल्ल, और विषयको चर्चित करनेको दृष्टिसे यह ग्रन्थ उतने उपरोहें थुइ चिरइय रसल्ल ॥ ( पत्र २) अधिक महत्वका नहीं है जितने अधिक महत्वको यह हिन्दी दासमल्लो विनीतात्मा धर्म-कर्मणि तत्परः। भाषाके विकासको दृष्टिको लिये हुए है । अतः भाषा-विज्ञोंके तस्योपदेशतः या चरित्रं जंबुस्वामिनः ।। (पत्र २७) द्वारा यह उस दृप्टिसे अध्ययन किए जाने तथा प्रकाशित
इनमें दाममल्लको यिनीतात्मा और धर्म-कर्ममें तत्पर किए जानेके योग्य है। इस ग्रन्थकी प्रति जयपुरके शास्त्र- बतलाया है। ऐसा जान पड़ता है कि पं. दासमल्ल कविकी भंडारमें भी पाई जाती है । प्रस्तुत प्रति अशुद्ध है। इस रचनामें भी सहायक हुश्रा है। १६. जम्बूस्वामि-पूजा
इस पूजाके प्रारम्भिक मंगलाचरणादि-विषयक कुछ पद्य यह पूजा प्रायः संस्कृत भाषामें निबद्ध है और जय- इस प्रकार हैंमालादिके कुछ अंश अपनश भाषाको लिए हुए हैं। यह वाणी यस्य गरीयसी गुणनिधेः सेव्या सदा पंडितउन्हीं साह टोडरको लिखाई हुई है जिन्होंने कवि राजमलसे लोकालोक-निवास-तत्त्वकथनं कत सतां सम्मता। जम्बूस्वामि-चरित्र लिखाया था । यह जम्बूस्वामि-चरित्र सोऽयं श्रीजिनवीरनाथममलं मानावमाने समं अकबरके राज्यमें सं० १६३२ को समाप्ति पर चैत्र सुदि अष्टमी- वन्देवा(ह) सततं परं शिवकर मोक्षाय स्वर्गाय वै || को रचा गया है। और यह पूजा उससे कोई ४ वर्ष बाद गौतमादि-गणाधीशान्मुनीन्द्र-गुण-पावकान् । अकयरके राज्य में ही विक्रम संवत् १६३६ की चैत वदि वन्दे सकल-कल्याण-दायकान् नतमस्तकः।२।।