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रूपक-काव्य परम्परा
(परमानन्द शास्त्री) भारतीय साहित्यमें रूपात्मक साहित्य अपना महत्व एवं पोभत्स रूपमें किया गया है। ग्रन्थका अध्ययन करनेसे पूर्ण स्थान रखता है। उसमें अमूर्तभावोंका मूर्तरूपमें चित्रण ग्रंथकर्ताको प्रतिशोधात्मक उग्र भावनाका सहज ही परिचय किया गया है। हृदयस्थित अमूर्तभाव इतने सूक्ष्म और मिल जाता है । वैसे काव्य सुन्दर है और उसमें पात्रोंका अदृश्य होते हैं कि उनका इन्द्रियों द्वारा साक्षात्कार नहीं चयन भी अच्छा हुआ है। हो पाता । परन्तु जब उन्हें रूपक उपमाके सांचेमें ढालकर रूपक-काव्य केवल प्राकृत संस्कृत भाषाओं में ही नहीं मृतब्य दिया जाता है। तब इन्द्रियों द्वारा उनका सजीव लिखे गए, किन्तु अपभ्रंश और हिन्दी भाषामें भी अनेक रूपसें प्रत्यक्षीकरण अथवा साक्षात्कार होता है । फलतः कवियों द्वारा रूपक खण्ड-काव्योंकी रचना की गई है । उनमें एक अदभुत शनि संचरित हुई प्रतीत होने लगती जिनका एकमात्र प्रयोजन जीवात्माको विषयसे पराङ्गमुखहै। और ये भाव इतने गम्भार, उदात्त और सजीव होते करके स्वहितकी अोर लानेका रहा है। हैं कि उनका प्रभाव हृदयपट पर अंकित हुए बिना नहीं अपभ्रंश भाषाके रूपक-काव्य रहन्न । रूपक माहिन्यकी सृष्टिका एकमात्र प्रयोजन पाठक
संस्कृत भाषाके समान अपभ्रश में भी रूपक काव्योंकी और श्रीनाओंका उत्र. काव्यमें निहित अन्तर्भावोंकी ओर
परम्परा पाई जाती है । परन्तु अपभ्रंश भाषामें तेरहवीं श्रारुष्ट करने हुए उन्हें आत्म-साधनकी ओर अग्रसर करना
शताब्दीसे पूर्वकी कोई रचना मेरे देग्वनेमें नहीं आई। रहा है। क्योंकि रागी और विषय-वासनामें रत श्रात्माओं पर
सोमप्रभाचार्यका 'कुमारपाल-प्रतिबोध' प्राकृत प्रधान रचना यस काई प्रभाव अंकित नहीं होता, अतः उन्हें अनेक रूपों है और जिसका रचनाकाल संवत् १२४१ है । परन्तु उसमें एवं उपमानोंका लोभ दिग्वाकर स्व-हिनकी अोर लगानेका
कुछ अंश अपभ्रंशभाषाके भी उपलब्ध होते हैं । उपक्रम किया जाता है। रूपक-काव्योंकी सृष्टि-परम्परा
उपका एक अंश 'जीवमनः करण मंलाप कथा' नामका भी प्राचीनकानसे ही श्राई हुई जान पड़ती है, परन्तु वर्तमानमें
है। जो उक्त ग्रन्थमें पृ० ४२२ से ४३७ तक पाया जाता जो उपमान उपमेय रूप साहित्य उपलब्ध है उससे उसकी
है। यह एक धार्मिक कथाबद्ध रूपक काव्य है। इसमें प्राचीनताका स्पष्ट आभाम मिल जाता है।
जीव, मन और इन्द्रियोंके मलापकी कथा दी गई है इतना जैन समाजमें रूपान्मक जैन साहित्यके सृजनका सूत्र- ही नहीं किन्त इसमें रूपकान्तर्गत दमरे रूपकको भी जोड़ पान कब हुआ यह विचारणीय है । परन्तु अद्याविधि
दिया गया है। ऐसा होने पर भी उक अंशकी रोचकतामें उपलब्ध साहित्य परसे ऐसा जान पड़ता है कि उसका
कोई अन्तर नहीं पड़ा। इस रूपक कायमें मन और
. प्रारम्भ हवीं शताब्दीमे पूर्व हो गया था। सं० ६६२ में
इन्द्रयोंके वार्तालापमें जगह-जगह कुछ मुभाषित भी दिये सिद्धपिने 'उपमितिभ्व प्रपंचकथा' का संस्कृतमें निर्माण
पचकथा का संस्कृतम निमाण हुए हैं जिनसे उक्र काम्य-ग्रन्थकी परमता और भी अधिक किया था, कविवर जयरामने प्राकृतमें 'धम्म परिक्वा' नामक
बढ़ गई है। ग्रन्थकी रचना प्राकृत गाथों में की थी, जो आज अपने मूल- जं पण तह जंपेसि जड़! तं असरिसु पडिहाइ। रूपमें अनुपलब्ध है। किन्तु मं० १०४४ में निर्मित धक्कड़- मण निल्लकवण किं महइ, नेअरु उड्ढह पाइ ॥७॥ वंशीय हरिषेणकी 'धम्म परिक्खा' उपलब्ध है जिसे भाषा अर्थात हे सर्व । तमतो कहते हो कि वह तुम्हारे योग्य परिवर्तनके साथ अपभ्रशमें रचा गया है। प्राचार्य अमित- नहीं प्रतीत होता, हे निर्लक्षण मन ! क्या ऊँटके पेरमें गतिकी धर्मपरीक्षा भी उसके बाद बनी है। धूर्नाख्यान, नूपुर शोभा देते हैं। मदन पराजय, प्रबोधचन्द्रोदय, मोहपराजय और ज्ञान- कथाभाग सूर्योदय नाटक श्रादि अनेक रूपक-प्रन्थ लिखे गए।
काया नगरीमें लावण्यरूप लचमीका निवास है। उस इन रूपक-ग्रन्थों में 'प्रबोध चन्द्रोदय नाटक' प्रतिशोध. x शशिजलधिसूर्य वर्षेशुचिमासे रवि दिनेसिताप्यम्याम की भावनासे बनाया गया जान पड़ता है। क्योंकि उसमें जिनधर्मः प्रतिबोधः क्लप्तोऽयं गूर्जरेन्द्रपुरे ।। बौद्ध भिक्षु और क्षपणक दि. जैन मुनिका चित्रण विकृत
-कुमारपाल प्रतिबोध