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किरण]
रूपक काव्य परम्परा
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ग्रन्थकी दूसरी सन्धिका ७वां कडवक दृष्टव्य है जिसमें है। कविने ग्रंथ रचनाका फल बतलाते हुए लिखा है कि कामदेवसे युद्ध करनेवाले युन्द्रोद्यत सुभटोंके वचन अकित हैं- इस ग्रन्थके अध्ययन करनेसे भव्य जीव काम-विजयके द्वारा वज्जघाउकोसि रिणपडिच्छइ असिधारापहेणकोगच्छइ अात्माका विकास करनेमें समर्थ हो सकते हैं । और आत्मा कोजम करण जंतु आमंघड, को भवदंडई सायरु लंघइ उस पानन्दको पा लेता है जिसमें जन्म जरा और मरणकी कोजम महिसमिंग उप्पाडइ विप्फुरंतु को दिणमणितोडइ कोई वेदना नहीं होती. किन्तु श्रात्मा अपने अनन्त ज्ञान, को पंचायणु सुत्तउखवलइ, काल कुट्ट को कवलहिंकवलइ अनन्त दर्शन, सुख और वीर्यमें लीन रहता है। आमोविस मुहिकोकरुच्छाहइ,धगधांतकोहयवहिसोखइ संस्कृत और अपभ्रंश भाषाके रूपक-काव्योंके समान लोहपिंडुको तत्तु घवक्कड, को जिण संमह संगरिचक्का हिन्दीभाषामें भी अनेक रूपक-काव्य लिखे गए हैं। जिनमें णय घरमझिकरहिहुबधट्टिय,महिलहं अग्गइतेरीटिव कविवर बनारसीदासका नाटक समयसार भैया भगवतीदासकवि नागदेवने हरदेवके इस 'मयण पराजय' को
र का 'चेतनचरित्र' और पंचेन्द्रिय सम्बाद सूवावत्तीसी, पंचेप्राधार बनाकर तथा उसमें यथास्थान संशोधन परिवर्तनकर
न्द्रियकी बेल आदि हैं। इनमेंसे यहां सिर्फ भगवतीदासके संस्कृतमें मदनपराजय नामक ग्रन्थकी रचना की है । नागदेव
चेतनचरित्र' पर प्रकाश डाला गया है, अगले लेखमें अन्य
ग्रन्थों पर प्रकाश डालनेका यत्न किया जायगा । हरदेवकी परम्पराका हा विद्वान है। यह रचनाभी बड़ी लोकप्रिय है।
हिन्दीभापाका रूपक-काव्य दूसरी कृति 'मन करहा है। जिसके कर्ता कवि पाहल
चेतन-चरित्र हैं। कविने अपनी रचनामें उसका रचनाकाल नहीं दिया
भैया भगवतीदापका 'चेतन चरित्र' एक सुन्दर रूपाहै । पर सम्भवतः यह रचना १४वीं १५वीं शताब्दी की है। स्मक काव्य है, जिसकी रचना बड़ी ही सरस और चित्ता क्योंकि जिस गुटके परसं इसे नोट किया गया है उसका कर्षक है । उसे पढ़ना शुरू करने पर पूरी किये बिना लिपिकाल सं० १९७६ है। अतः यह रचना सं० १५७६ जी नहीं चाहता, उसमें कोरा कथा-भाग हो नहीं है किन्तु से पूर्ववती है। कितने पूर्ववर्ती है यह अभी विचारणीय है। उसमें चेतन राना और मोहके चरित्रका ऐसा सुन्दर चित्रण रचना सुन्दर और शिक्षाप्रद है। इसमें ८ कडवक दिये हए किया गया है जिसका प्रभाव हृदय-पटल पर अंकित हुए हैं। जिनमें पांचों इन्द्रियोंकी निरंकुशतासं होनेवाले दुर्गतिके बिना नहीं रहता , वह इस मोही प्राणीको अपने स्वरूपकी दुःखोंका उद्भावन करते हुए मन और इन्द्रियोंको वशमें झांकी प्रस्तुत करता ही है। चरित्रका संक्षिप्त प्रसार इस करने और तपश्चरण-द्वारा कर्मोको खिपानेका सुन्दर उपदेश प्रकार हैदिया गया है।
चेतनराजाकी दो रानियां हैं, सुमति और कुमति । तीसरी कृति 'मदन-जुद्ध' है। जिसके कर्ता कवि वूचि
. एक दिन सुमति चेतन श्रान्माकी कर्मसंयुक्त अवस्थाको देख
कर कहने लगी-हे चेतनराय ! तुम्हारे साथ इन दुष्ट कर्मोराज हैं जिनका दूसरा नाम 'बल्ह' भी था । ग्रन्थमें उसका रचनाकाल सं. १५८१ आश्विन शुक्ला एकम शनिवार
का संग कहाँसे आगया ? क्या तुम अपना सर्वस्व खोकर भी
प्रबुद्ध होना नहीं चाहते । जो व्यकि अपने जीवनमें सर्वस्व दिया हश्रा है, जिससे यह ग्रन्थ विक्रमकी १६वीं शताब्दीके
गमाकर भी सावधान नहीं होते, वह कभी भी समुन्नत नहीं उत्तरार्धका बना हुआ है । इस ग्रन्थमें इच्वाकु कुलमण्डन
हो सकता । अतः अनेक परिस्थितियों में फंसे रहने पर भी नाभिपुत्र ऋषभदेवके गुणोंका कीर्तन करते हुए उन्होंने
उनकी वास्तविक स्थितिको समझने, उन्हें पूरा करने, उनसे कामदेवको केसे जोता ? इसका विस्तारसे कथन किया गया
छुटकारा पाने या अपने स्वरूपको प्राप्त करनेके लिये जाग® राह विक्कमतणों संवत् नम्वासीय पनरसह सरदरुत्ति रूक होनेकी जरूरत है । अपनी असावधानी ही अपने
आसु बखाणु। पतनका कारण है। तिथि पडिवा सुकल पख मनीचरवार कर णक्खत्त जाणु । चेतन हे महाभाग ! मैं तो मोहजाल में ऐसा फंस तिनु दिन वल्ह जु संठयो मयणजुज्झ-सविवेस । गया हूँ कि उस गहन पंकसे निकलना मुझे अब दुष्कर पठन सुणत रिक्खाकरो जयो स्वामि रिसहेस १५७ जान पड़ता है। मैं यह जानना चाहता कि इनसे मेरा