Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
View full book text
________________
२८२]
अनेकान्त
[वर्ष १४
गिय जण रणग्गइं भासिउ जंते,
चहुँ गोउर लोहहिं विप्फुरति. ििच किंचि मणि मोहु कुणंते ।
अरियण मणमागाहु अवहरति । णाणावरण-कम्म-खय-कारणि,
दु लिक्खणहं जुनवर जस्थ हम्म, प्रासि विहिय कलि-मल-वहारणि ।
कम-चट्टिहि कसियहिं जहि जन्थ भम्म । सिरि चरमिल्ल जिणिदहु केरउ,
जिण-चेईहरु जहिं मज्झिमाइ', चरिउ करावाम सुक्खजणेरउ ।
जिण पडिमाहि जुडं सुर-हरु वणाई ।। जइ कुवि कइयणु पुण्णे पावमि,
जहिं मोहई सरुवरु सलिल-पुण्णु, ता पुण्णहं फलु तुम्हहं दावमि ||
परिमलजुएहि कमलेहि छण्णु । तड्याइ ममाइ तामु पउत्तउ,
रायालउ सोहइ जहिं विचित्तु, तेण जि अणुमरिणयउ णिरुत्तउ ।
वर-पंचवरण रयणेहिं दित्त ॥ तं जि सहल करि भो मुणि पावण,
तिक्वालियणहि-भरिय-हट्ट, एन्धु महाकइ णिवसइ सुहमण ।।
छुह-पकिय जहिं दीसहि विपट्ट । रइधृणामें गुण गण धारउ,
बावार करहिं जहिं वणिय-विद, सो गो लंघह वाण तुम्हारउ ।
मच्चे सउच्चे जे अणिद ।। तं णिसुणिवि गुरुणा गच्छहु गुरुणाई सिहसेणि मुणेवि मणि खडतामयवणि जहिं सुहि वसति, पुरु सठिउ पंडिउ सील अखंडिउं भर्माणउ तेण तं तम्मि खणि
वितागुमारि दाणाईदिति। भो सुणि कइगण-कुल तिलय-तार
अण्ण जहिं साक्य विगयवियावय णिवहिं जिणपयतिरया। शिवाहिय णिच्च कइनभार ।
छक्कम्महि जुत्ता चमण-विरत्ता पर उवयारहं णिच्च रया ॥६॥ जिण-सामण-गुण वित्थरण दच्छ
जो अयरवाल-कुल-कमल-भागु, मिच्छत्त-परम्मुद्द भाव-सच्छ ।
वियसावणि गुण-किरणहिं पहाणु । महु तणउं वरण प्रायण्गि वप्प,
गरपति णामें संघहु सहारु, अवगहिं बहु विह मण-वियप्प ।
संघाहिउ धरिय उ संघभारु ॥ जोयरिणपुराउ पच्छिम दियाहि,
तह णंदणु बील्हा साहु जाउ, सुपमिद एयरु बहु सुह-जुयाहि ॥
जिणधम्म धुरंधरु विगय-पाउ | णामें हिसारपिरोज अस्थि,
सम्माणिउ जो पेरोजसाहिं काराविउ पेरोसाहिज सस्थि ।
तहु गुण वरण को सक्कु अाहिं ॥ वण-उबवणेहिं चउपास-किराणु,
तहु णंदगु हूवा वेवि इत्थ, पंथिय-जणाहं पह-खेउं छिण्णु ।।
बाधू साधू णामें पपत्थ। चित्तंग तरगिणि ग्रइ गहीर,
बाधू सुनो जाउ दिवराजु सुपसण्णु, वय-हंस-चक्क-मंडिय स तीर ।
दालिद्दतिमिरतयरु णंह रविधिमण्णु ॥ जहिं वहा सुहामु स जलु मुणिन्छु, सयलहं जीव पोमण समिटु ॥
8 तहिं मुणिवरु हुउ चिरु सिद्धसेणु, परिहा-जल लहरि-तरंगरहि
जो सिद्ध विलासिणि तणउ कंतु । जा सेवइ सालहु अहमणि पहिं ।
तहो सीसु जाउ मुणि कणयकि (तु) सप्पुरिसहु सणिहु णाइण रि,
जो भब्व-कमल-बोहण-दिणिंदु ।। थक्की अवह डिवि सुकम्वयारि ॥
ये चारों पक्कियां नयामंदिर धर्मपुराकी अपूर्ण प्रतिमें जहिं पायार वि सुज्झजियपयत्य,
और सेठके कूचा मन्दिरके शास्त्रभण्डारकी प्रतिमें नहीं रेहति तिरिण उत्त ग जत्थ ।
हैं। किन्तु पारा सिद्धान्त भवनकी प्रतिमें पाई जाती हैं।

Page Navigation
1 ... 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429