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अनेकान्त
[वर्ण १४
दीक्षा लेकर बड़ा तपस्वी जैन मुनि हुआ। एक बार एक द्वारा वर्णित यज्ञ करता है। धर्म ही मेरा सरोवर है और मासोपवासके उपरान्त पारणाके लिए भिक्षाटन करते हुए ब्रह्मचर्य ही मेरा शान्ति तीर्थ है। इसीमें निमज्जन करके वह एक ऐसे स्थान पर पहुँच गया जहाँ कुछ ब्राह्मण एक विम विशुद्ध महामुनि उत्तम पदको प्राप्त करते हैं।' महा यज्ञ कर रहे थे। उसका कृश मलीन शरीर देखकर बौद्ध संघाचा परिचय (पृ०२५३-५६) के अनुसार याजक ब्राहाणोंने उसकी भर्त्सना की और वहांसे चले
बुद्धके भिक्षु-संघमें श्वपाक नामक चांडाल और सुनीत जानेके लिये कहा। इस पर समीपके एक तिंदुक वृक्ष पर ।
नामक भंगी महान् साधु हुए थे। दिव्यावदान, उदान, रहने वाला यक्ष गुप्तरूपसे हरिकेशिबलके स्वरमें उन ब्राह्मणों-
अंगुत्तर निकाय प्रादि प्राचीन बौद्ध धर्मग्रन्थोंसे भी यही
गता से बोला, 'हे ब्राह्मणों! तुम तो केवल शब्दोंका बोझ ढोने
प्रकट होता है कि किसी भी वर्णका व्यक्ति भि हो सकता वाले हो। तुम वेदाध्ययन करते हो किन्तु वेदोंका अर्थ नहीं था और भिन्च होनेके उपरान्त उसका पूर्व कुन जावि गोत्र जानते ।' उन अध्यापक ब्राह्मणोंने इसे अपना अपमान नष्ट हो गये माने जाते थे। इसी प्रकार जैन मूलाचार, समझा और अपने तरुण कुमारोंको आज्ञा दी कि वे उस
भगवती आराधना, प्राचारांग सूत्र आदिसे भी यही प्रकट दुष्टको पीट दें। अतः वे युवक मुनिको डंडों, छड़ियों, होता है कि जैन मुनिका कोई वर्ण, जाति, कुल या गोत्र कोड़ों भादिसे पीटने लगे। यह देख कर कोसलिक राजाको नहीं होता. ग्रहस्थ अवस्थाके ये मेद-प्रभेद उसके मुनि होने पर कन्या एवं पुरोहितकी स्त्री भद्राने उन्हें रोका। इतनेमें नष्ट हो गये माने जाते हैं। अनेक यक्षोंने आकर उन ब्राह्मण कुमारोंको मार-पीट कर बौदोंके 'मातंग जातक' (नं. ४१७) में गौतमबुद्धके लहू-लुहान कर दिया। ब्राह्मण डर गये, उन्होंने हरिकेशिबल जन्मसे बहुत पूर्व कालकी मातंग ऋषि नामक एक चांडालमुनिसे क्षमा मांगी और चावल आदि उत्तम अनाहार उन्हें
कुलोत्पन्न श्रमण मुनिकी कथा पाई जाता है। वाराणसी समर्पित किया।
नगरीके बाहर एक चाण्डाल कुल में उसका जन्म हुआ था। आहार लेनेके उपरान्त, हरिकेशिबल मुनि उनसे बोले, जब वह युवा हुआ तो उसने एक दिन मार्गमें वाराणसीके 'हे ब्राह्मणो! तुम आग जलाकर अथवा पानीसे बाह्यशुद्धि नगर-सेठकी दृष्टमंगलिका नामक सुन्दरी कन्याको देखा। प्राप्त करनेकी चेष्टा क्यों कर रहे हो? दार्शनिक कहते हैं वह अपने उद्यानमें याचकोंको भिक्षा देने जा रही थी। यह कि तुम्हारी यह बाह्यशुद्धि योग्य नहीं है।'
ज्ञात होने पर कि मातंग चाण्डाल है, वह उसका मिलना एक इस पर ब्राह्मणोंने पूछा, 'हे मुनि हम किस प्रकारका अपशकुन मानकर मार्गसे ही वापस लौट गई । निराश यज्ञ करें और कर्मका नाश कैसे करें?
याचकोंने मातंगको बहुत मारा । इस अपमानसे दुखी मुनिने उत्तर दिया, 'साधु लोग षट्कायके जीवोंकी होकर मातंगने उस सेठीके द्वारपर धरना देदिया और कहा हिंसा न करके, असत्य भाषण और चोरी न करके, परिग्रह, कि सेठ-कन्याको लेकर ही वह वहाँसे टलेगा। अन्ततः सेठने स्त्रियाँ, सम्मान एवं माया छोड़कर दांतपनसे प्राचरण उसे अपनी पुत्री सौंप दी। मातंगने उसके साथ विवाह कर करते हैं । वे पांच महाव्रतोंसे संवृत होकर, जीवनकी अभि- लिया किन्तु थोड़े समय पश्चात् ही वह उसे छोड़कर वनलाषा न रख कर, देहकी आशा छोड़कर देहके विषयोंमें में चला गया और घोर तपस्या करने लगा। इस बीचमें अनासक्त बनते हैं और इस प्रकार श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। उसकी स्त्रीने एक पुत्र प्रसव किया जिसका नाम माण्डव्य
ब्राह्मणोंने फिर पूछा, तुम्हारी अग्नि कौन सी है। हा। इस बालकको पढ़ानेके लिये स्वेच्छासे बड़े-बड़े अग्निकुण्ड कौनसा है? सवा कौनसी है ? उपले कौनसे वैदिक पण्डित आये, फलस्वरूप माण्डव्य-कुमार तीनों वेदों हैं, समिधाएँ क्या हैं । शान्ति कौनसी है ? किस होमविधि- में पारङ्गत होगया और ब्राह्मणोंकी बढ़ी सहायता करने से तुम यज्ञ करते हो? और तुम्हारा सरोवर कौनसा है, लगा। एक दिन मातंग ऋषि माएडम्य कुमारके द्वार पर शान्तितीर्थ क्या है।
भिक्षा माँगनेके लिये श्राया। पुत्रने पिताको पहिचाना नहीं हरिकेशिवलने उत्तर दिया, तपश्चर्या मेरी अग्नि है, और उसके कृश मलिन शरीर आदिके कारण उसका जीव अग्निकुण्ड है, योग स्नु वा है, शरीर उपले हैं, कर्म अपमान किया और धक्के देकर बाहर निकलवा दिया । समिधाएँ हैं, संयम शान्ति है। इस विधिसे मैं ऋषियों दरिद्र तपस्वीके प्रभावसे माण्डव्य और उसके साथी