Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 337
________________ श्रमण-परंपरा और चांडाल ( डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ) सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । रामचन्द्रसे उसे प्राण-दण्ड दिलवाया। महर्षि वेदव्यासकी देवा देवं विदुर्भस्मगुढाकाराऽऽन्तरौजसम॥ महाभारतके अनुसार एकलव्य भीलको पांडवों एवं कौरवों भगवान् समन्तभद्र (शककी प्रथम शताब्दी) ने के गुरु द्रोणाचार्यने उसके सर्वप्रकार योग्य एवं बिनयशील अपने रस्नकरंडश्रावकाचारकी इस २८ वीं का रकामें सम्य- होते हुए भी अपना शिष्य नहीं बनाया, और जब वह ग्दर्शनकी महिमाका वर्णन करते हुए बताया है कि 'सम्य- अपने मनोनीत गुरुकी मिट्टीकी मूर्तिके समक्ष ही अभ्यास ग्दर्शनसे सम्पन होने पर एक जम्म-जात मातंग (श्वपाक करके धनुर्विद्यामें द्रोणाचायके साक्षात् शिष्यों अर्जुन या चांडाल) भी देवतुल्य पाराध्य या श्रद्धासद हो जाता आदि क्षत्रिय राजकुमारों-से भी अधिक कुशल सिद्ध है। साथ ही यह स्पष्ट करने के लिये कि यह मत स्वयं उनका हुया तो उन्हीं ब्राह्मण गुरुने उसके दाहिने हाथका अंगूठा अपना ही नहीं है, यह भी लिख दिया कि 'देव' अर्थात् गुरु-दक्षिणाकी भेंट चढ़वाकर, भील होनेके कारण ही उस प्राप्तदेव, तीर्थकरदेव या गणधरदेव ऐमा कहते हैं। वीरको सदैवके लिये अपंगु बना दिया। मनुस्मृति आदि स्वामी समन्तभद्रकी गणना जैनधर्मके सर्व महान् धर्मशास्त्रोंने तो विधान बना दिये कि कोई शूद्ध यदि वेदप्रभावक प्राचार्योंमें की जाती है। उनके सम्बन्धमें जो अनु- वाक्य सुनता हुश्रा भी पाया जाय तो उसके कानों में शीशा श्रुतियां प्राप्त हैं, उनसे विदित होता है कि उन्होंने पंजाब- पिघलाकर भर दिया जाय, उच्चारण करता पाया जावे तो से बेकर कन्या कुमारी पर्यन्त और गुजरात मालवासे उसकी जीभ काट ली जाय, इत्यादि। लेकर बंगाल पर्यन्त सम्पूर्ण भारतवर्ष में विहार करके जैन- इसके विपरीत श्रमण-परम्परामें अनेक ऐसी अनुधर्मका अभूतपूर्व प्रचार किया था। श्रमण तीर्थकरोंके सच्चे श्रुतियां एवं कथाएँ मिलती हैं जिससे भली प्रकार स्पष्ट प्रतिनिधिके रूपमें वे यह मानते थे कि धर्म तो जीवमात्रका है कि सभी वर्गों के स्त्री पुरुष स्वेच्छासे गृहस्थ श्रावक ही कल्याणकारी है और जीवमात्र उसके अधिकारी हैं । वर्ण, नहीं, मुनि आर्यिका या भिन्तु भिक्षुणी तक बन सकते थे। वर्ग, जाति, जिंग, भायु आदि मेह किसी भी व्यक्निके धर्म- एक ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न श्रमण साधु और शुकुलमें धारण करने और उसका पालन करने में बाधक नहीं होते। उत्पन श्रमण साधुके बीच न साधु-संघमें कोई भेद किया वस्ततः वैदिक आर्योंकी ब्राह्मण-संस्कृति और अध्या- जाता था और न श्रावक-समाजमें। श्रमण साधु सभी स्मवादी तीर्थकरोंकी श्रमण-संस्कृतिके बीच इसी प्रश्नको वौँ, वों और जातियोंके स्त्री पुरुषोंको समान रूपसे लेकर सबसे बड़ा मौलिक मत भेद था। तीर्थकरोंके अनु- धर्मोपदेश देते थे और धर्ममार्गमें श्रारूद करते थे। जैसी सार धर्म पर प्राणिमात्रका समान अधिकार है, धर्माचरण जिसकी वैयक्तिक योग्यता, क्षमता या परिस्थिति होती, उसे एवं धार्मिक कृत्योंके करनेमें प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण स्वतंत्र, वसा ही नियम, बत आदि धारण करांत । एक सर्वभक्षी समर्थ एवं अधिकृत है। वैदिक-परंपराके ब्राह्मण भावार्योक भील या चांडाल यदि मांसाहारका भी सर्वथा त्याग न कर मतानुसार प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक जाति, स्त्री, पुरुष, विभिन सका, बल्कि अधिकांश पशु-पक्षियोंके भक्षणसे विरत होने में आश्रम (अवस्था) वाले व्यक्तियों, सबके लिये धर्मका किसी न किसी कारणसे तैयार न हो सका तो उसे केवल विधान अलग-अलग है। किसी एकके द्वार दूसरेके धर्मका कौएके मांसका सर्वथा त्याग करनेका वत लेनेके लिये ही पालन करना अधर्म है एवं वह दण्डनीय है। मुनिराजने राजी कर लिया। किन्तु इस अति नगण्य अस्तु, वाल्मीकि ऋषिकी रामायणके अनुसार जब त्यागके फलस्वरूप ही उस सर्वभक्षी चांडालके मनोबल एवं शंबूक नामक शूद्र राजाने अपनी मर्यादासे आगे बढ़कर श्रात्मवलमें वृद्धि होने लगी। परीक्षा आई, वह सफल ब्राह्मण और क्षत्रियोंका धर्म पालन करना शुरू कर दिया सिद्ध हुआ, परिणाम-स्वरूप आरमोशतिके मार्ग पर तेजीसे वह वेद-पाठ और यज्ञ-याग करने लगा तो ब्राझय लोग बढ़ने लगा। बड़े कुपित हुए और उन्होंने उसकी इस पृष्टता एवं प्रध- श्वेताम्बर जैन उत्तराध्ययन सूत्रमें हरिकेशिवल चांडालमांचरणके लिये परम न्यायवान् मर्यादा पुरुषोत्तम महाराज की कथा आती है। वह चांडाल-पुत्र होने पर भी जैनेश्वरी

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