Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 311
________________ किरण ) रूपक-काव्य परम्परा २९५ वह अपनी फौजोंको जोडकर युद्ध करना चाहता है । दृतके ओर लगा दिया, और अप्रत्याख्यान नामक योद्धाको अपने वचन सुनकर ज्ञानदेव मनमें कुछ मा और कहा कि तुम परिवार सहित उत्रनगरकी रक्षाका भार सौंप दिया। उक्र शीघ्र ही 'अवतपुर' जात्रो और शत्रुदलको घेर कर उसे सरने अवतपरमें स्थित होकर प्रतदेवक कार्योमें विघ्न डालने नष्ट करो, अब शानकी समस्त सेना गढ़से निकल कर का यत्न किया। परन्तु चेतनरायने अपने ज्ञान और विवेककी शत्रुको घेरनेके लिए चली और विवेक सेनानी उसके सहायतासं 'देश व्रतपुरके' मार्गको अवरुद्ध करने वाले मुभटोंआगे चला। को धर्मध्यानकी आराधना द्वारा और मवेग वैराग्यकी दृढ़ता इधर शानदेयके प्रधान सेनापतित्वमें चेतनरायकी सेना, से क्षणमात्रमें मूर्छित कर दिया । और मोहके अन्य अविवेक और कामकुमारके सेनापतिम्नमें मोराजाकी सेनामें परस्पर प्रात-रौद्र रूप मभटोंको भी पराजितकर देशवतपुर पर अपना घमासान युद्ध होने लगा , युद्ध में दोनों बारसं वीर एक अधिकार कर लिया। यद्यपि अविवेकने अपना भारी पुरुषार्थ दूसरे योद्धाको ललकारते हए एक दूसरे पर बाणवां दिग्वलाया, और अपने घातक बाणोंकी वर्षा द्वारा शत्रुदलको करने लगे, यद्यपि ज्ञानदेव युद्धनीतिम अतिशय निपुण था हानि पहुँचानेका भारी यन्न किया; किन्तु उस किंचत्भी तथापि कामकुमार भी उससे कम नहीं था पर वह शरीरसे सफलता न मिला, क्याकि अत्यन्त मुकुमार था और ज्ञानदेय कठोर, तथा पराक्रमी, रूप चक्रसे शत्रु-सेनाको पराजित कर दिया, और अवशिष्ट ज्ञानदेवने सुकुमार कामकुमारको एक ही बाणमें पृथ्वी पर शत्रु सेनाको भी देशव्रतपुरस निकाल कर भगा दिया। सुला दिया, कामकुमारने अपने पौरस दिखाने में कोई कमी चेतनको देशवतपुरकी विजयस हर्षातिरेक तो हुअा, परंतु नहीं की, किन्तु ज्ञानदेव समन्न उसकी एक भी चाल साथ ही आगे बढ़ने और अपने समस्त प्रदेशसि मोह सेनाके सफल न हो सकी । ज्ञानदेवने केवल कामकुमारका ही हनन निष्कासन करने का विचार भीस्थिर हुआ और देशवत नगरक नहीं किया. किन्तु मोहसनाक अन्य सात सुभट वीरोंका एकादश श्रावक भावरूप व्रतको पुष्ट करने तथा शत्रुओंसे भी काम तमाम कर दिया, जो चेतनके मार्गको रोक उनकी रक्षा करनकी महती पालनाको कार्यमें परिणत किया। हुए थे। मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व और इतना ही नहीं किन्तु धर्मपानरूप कुठारसे शत्रुपक्षका अनतानुबंधी क्रोध, मान. माया-लोभ । इन सातों मुभटों- दमन करते हए चेतनने 'प्रमत्तपुर' को जीननेका विचार के विनष्ट हो जानेस मोहने युद्ध की स्थितिको बदलते स्थिर किया। क्योंकि उस नगरका मार्ग मोहके प्रबल देख अपने सैन्यदलको पुनः सम्हालनेका यन्न किया पर । सेनानी प्रत्याग्व्यान नामक कषाय मूरने अपने परिवार महित वहांसे उसे हटना ही पडा । पश्चात ज्ञानदेवने चक्रव्यूह- अवरुद्ध किया था । और मध्य में प्रमाद जैसा सुभट भी की रचना कर अपने मैन्यदलको संरक्षित कर लिया और उसकी रक्षा करनेक लिये तत्पर था : साथ ही मोहके अज्ञाउस चक्रव्यूहके द्वारके संरक्षणका कार्य वनदेवको मौंप नादि अन्य सुभट भी उनकी सहायनाके लिये उद्यत थे। दिया । ऐसी स्थितिमें 'प्रमत्तपुर' को अधिकृत करना तुमुल संग्राम किन्तु यहां शानदेवने जिम विपम चक्रव्यूहका निमाण के विना सम्भव नहीं था। इसके अतिरिक मोह भी स्वयं किया था, और उसमें अपने मैन्यदलको इस तरहसे अपने मनस्त परिवारके माथ उसकी रक्षा करनेके लिये कटिसन्यवस्थित किया जिसमें शत्रुदलका उममें प्रविष्ट होना बद्ध था। उसने चेतनको पकडने के लिये अपने अनेक वीर अशक्य हो गया-शत्रु-सेनाका एक-एक मुभट अपनी-अपनी मैनिक इधर-उधर छिपा रखे थे जो अवसर पाने ही चेतनशक्ति पचाकर माहमहीन होगया परन्तु कोई भी उसकामेन की शक्रिको नष्ट करनेका प्रयत्न कर सकते थे। साथ ही करने में समर्थ न हो सका । इधर वनदेवने अपने धनुष-बागासे मोहका यह आदेश था कि यदि चेतन 'देशवतपुर' से आगे अवितिको भी जा पवाडा जिससे वह युद्ध-भूमिसे उठनेमें बढे तो उसे उसी समय गिरफ्तार कर लिया जय । और सर्वथा अम्मर्थ हो गया। इस तरह मोहक वे सभी योद्धा फिर मैं उसे मिथ्यात्वमें डालकर अपने वरका मनमाना जिन पर मोहको सदा नाज रहा करता था एक एक कर बदला ले सकृगा। मारे गए । अतः मोहने 'अवतपुरको छोड दिया' और देश इधर चेतन भी अपने सेनानी शान और विवेकके साथ व्रतपुर' जा घेरा । तथा वहां अपनी सेनाको सुदृढ़ मोर्चेको अपनी दृढ़ताको बराबर बढ़ा रहा था, और मोहको जीतनेसे

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