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भ. बुद्ध और मांसाहार
[पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री] अपनेको धर्म-निरपेक्ष कहने वाली भारत सरकारने अभी शब्दका अर्थ बुद्धघोषाचार्यकी टीकाके अनुसार 'सूकरका पिछले दिनों बुद्ध जयन्तीके अवसर पर बुद्धधर्मके अनु- मांस किया है, उसी टीकामें उन्होंने स्वयं स्वीकार किया यायियोंको प्रसन्न करनेके लिए सारे भारतमें अनेकों स्थानों है किपर अनेक समारोहोंका आयोजन किया और 'भगवान् बुद्ध' 'एके भणंति सूकर महवं ति पन मुदु ओदनस्स नामक पुस्तकका हिन्दी संस्करण प्रकाशित कराया। इस पश्चगोरसयूसपाचनविधानस्स नाममेतं। यथा पुस्तकके 'मांसाहार' नामक ग्यारहवें परिच्छेदमें मांस-भक्षण गवपानं नाम पाकनामं ति। केचि भणंति सूकरकी वैधता सिद्ध करनेके लिए भ. बद्धके साथ-साथ जैन मद्दवं नाम रसायनविधि, तं पन रसायनत्थे आगधर्म और भ० महावीरको घसीटनेका अति साहस श्वेताम्बरीय शास्त्रोंके कुछ उद्धरण और कुछ व्यक्तियोंके
अर्थात् कई लोग कहते हैं कि पंचगोरससे बनाये हुए मौखिक हवाले देकर किया गया है। प्रस्तुत पुस्तकके
मृदु अनका यह नाम है, जैसे गवपान एक विशेष पकवानका लेखक श्राज दिवंगत हैं और उन्होंने अपने जीवन-कालमें नाम है। कोई कहते हैं 'सूकरमद्दव' एक रसायन था और ही दिगम्बर सम्प्रदायके विद्वानों द्वारा उनका ध्यान आकर्षित रसायनके अर्थमें उस शब्दका प्रयोग किया जाता है।' करने पर अपनी भूलको स्वीकार कर लिया था और इस उल्लेखसे यह बात बिलकुल साफ दिख रही है पुस्तकके नवीन संस्करणमें उसके स्पष्ट करनेका आश्वासन कि बुद्धघोषाचायके पूर्व 'सूकर मद्दव' का अर्थ 'सूकर-मांस' भी दिया था। वे अपने जीवन-कालमें अपनी भूलको न नहीं किया जाता था। 'महव' शब्दका अर्थ किसी भी सुधार सके। परन्तु शासनका तो यह कर्तव्य था कि खास कोषके भीतर 'मांस नहीं किया गया है, किन्तु सीधा प्रचारके लिए ही तैयार किये गये संस्करणको एक वार और स्पष्ट अर्थ 'मार्दव' ही मिलता है । वस्तुतः बुद्धघोष किसी निष्पक्ष या धर्म-निरपेक्ष समितिसे उसकी जांच करा जैसे स्वयं मांस-भोजी भिक्षुओंने अपने मांस-भोजित्वके लेते कि कहीं किसी धर्मके प्रति इसके किसी वाक्यसे औचित्यको सिद्ध करनेके लिए उन शब्दको मन-माना अर्थ घृणा, अपमान या तिरस्कारका भाव तो नहीं प्रगट होता है, लगाकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि स्वयं बुद्ध पर जब हमारी सरकारको जो कि मांस-भक्षणके प्रचार पर भगवानूने भी अपने जीवन-कालमें मांस खाया था। तुली हुई है, और जिसके पक्षका समर्थन पुस्तकके उस अंश- यथार्थ बात यह है कि बुद्धने पार्श्वनाथके सन्तानी जैन से होता है, तब वह ऐसा क्यों करती?
प्राचार्यसे जिनदीक्षा ग्रहण की थी और वे एक लम्बे समय दिगम्बर और श्वेताम्बर समस्त आगमों में जीवघात और तक उसका पालन करते रहे हैं। उस समयकी अपनी तपमांस-भक्षणको महापाप बताकर उसका निषेध ही किया श्चर्याका उल्लेख करते हुए उन्होंने सारिपुत्रसे कहा हैगया है। भगवती सूत्रके जिन शब्दोंका मांस-परक अर्थ (१) वहां सारिपुत्र ! मेरी यह तपस्विता (तपश्चर्या) किया जाता है, जो भ. महावीर पानी. हवा आदिके सूक्ष्म थी-मैं अचेलक (नग्न ) था, मुक्काचार सरभंग), हस्ताजीवों तककी रक्षा करनेका औरोंको उपदेश देते हों, वे स्वयं पलेखन (हाथ-चहा), नएहिभादन्तिक (बुलाई भिक्षाका पंचेन्द्रिय पशुओंका पका हुआ मांस खा जायें, यह नितान्त त्यागी), न तिष्ठ भदन्तिक (ठहरिये कह दी गई भिक्षाका असंभव है।
त्यागी) था न अभिहट ( अपने लिये की गई भिक्षा)को, ___ 'भगवान बुद्ध' पुस्तकके लेखक बौद्ध भिक्षु धर्मानन्द न (अपने ) उद्देश्यसे किये गयेको (और) न निमंत्रणको कौशाम्बीने मांस-भक्षणकी वैधता सिद्ध करनेके लिये प्रस्तुत खाता था xoxन मछली, न मांस, न सुरा, (अर्क पुस्तकके ग्यारहवें परिच्छेदमें यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया उतारी शराब), न मैरेय ( कच्ची शराब ), न तुषोदक है कि बुद्ध स्वयं मांस-भोजी थे और उनके अनुयायी भिक्षु (चावलकी शराब) पीता थाइत्यादि। भी मांस-भोजन करते थे। कौशाम्बीजीने जिस 'सूकर माव' (मज्झिमनिकाय, १२ महासीहनाद, पू. ४८-४६)