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अनेकान्त
[वर्ष १४ जाता है, वह परमारमा कहीं इधर-उधर बाहिर नहीं है। इस एक सूत्र के द्वारा ही भ० महावीरने अपने समयको किन्तु अपने इसी शरीरके भीतर रह रहा है।
ही नहीं, बल्कि भूत और भविष्यकालमें भी उपस्थित होने मावार्थ-वह परमात्मा दूसरा और कोई नहीं है, किंतु वानी असख्य समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर दिया। मात्मा ही अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेने पर परमात्मा पहला और सबसे बड़ा हल तो उन्होंने अपने समय के कर्महो जाता है अतः अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करनेका कावडी क्रिया-प्रधान वैदिक और अध्यात्मवादी वैदिकेतर
सम्प्रदायवालोंका किया और कहा____ वह शुद्ध परमात्म-स्वरूप कैसे प्रास होता है, इस हत ज्ञान क्रियाहीन हता चाज्ञानिनां क्रिया। विषय में भ० महावीर ने कहा
धावन किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः१५॥ कम्म पुराइट जो खबइ अहिणव वेसण देह।
क्रिया या सदाचारके बिना ज्ञान बेकार है, कोरा ज्ञान परमणिरंजणु जो णवइ सो परमप्पड हाइ सिद्धिको नहीं दे सकता । और अज्ञानियोंकी क्रियाएं भी
जो अपने पुराने कोको-पाग, द्वेष, मोह आदि निरथकह, व भा प्रारमसुखका नहीं द सकना । जैसे किसी विकारी भावोंको दूर कर देता है, नवीन विकारोंको अपने
बीहद जंगलमें भाग लग जाने पर चारों ओर मागता हुमा मीतर प्रवेश नहीं करने देता है और सदा परम निरंजन बंधा पुरुष जबन विनाशको प्राप्त होता है और पंगुबामाका चिन्तवन करता है, वह स्वयं ही मामास परमात्मा बंगड़ा आदमी बचनेका मार्ग देखते हुए भी मारा जाता है। बन जाता है।
म. महावीरने दोनों प्रकारके लोगोंको संबोधित करते भावार्थ-जैन सिद्धान्तके अनुसार सरकी सेवा- हुए कहाउपासनासे पात्मा परमात्मपद नहीं पाता किन्तु अपने संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञाः न ह्य कचकण रथःप्रयाति । ही अनुभवन और चिन्तनसे परमात्मपदको प्राश करता है। अन्धश्च पंगुश्च वने प्रविष्टौती संप्रयुक्तीनगरं प्रविष्टी१६
संसारमें प्रचलित सर्वधमोके प्रति समभाव रखका ज्ञान और क्रियाका संयोग ही सिद्धिका साधक होता उपदेश देते हुए भ. महावीरने कहा
है, क्योंकि एक चक्रसे रथ कभा नहीं चल सकता । यदि जोण करेदि जुगुपं चेदा सम्बोसिमंव धम्मा।
दावाग्निमें जलते हुए वे अन्धे चार बंगड़े दोनों पुरुष मिल
जाते हैं, और अन्धा, जिसे कि दीखता नहीं, किन्तु चलनकी सो खलु बिदिगिच्छो सम्माइसी मुणयन्वा॥
शक्ति है, वह बदि चलनेकी शकिसे रहित, किन्तु दृष्टिजो किसी भी धर्मके पति ग्लानि वा पवा नहीं करता,
सम्पन्न पंगुको अपने कंधे पर बिठा देता है तो वे दोनों किन्तु सभी धर्मों में समभाव रखता है, यह निविचिकित्सित
दाणग्निसे निकल कर अपने प्राय बचा बंते हैं। क्योंकि सम्पष्टि वयार्थ वस्तु-दशी जाना चाहिए।
भन्मेके कंधे पर बैठा पंगु मनुष्य चलने में समर्थ अन्धेको सर्व धर्मों के प्रति समभाव रखने के विमिच भ. महावीरने
बचनेका सुरक्षित मार्ग बतलाना जाता है और अन्धा उस न्यवाद, अनेकान्तवाद वा समन्वयवादका उपदेश दिया
निरापद मार्ग पर चलता जाता है और इस प्रकार दोनों और कहा
नगरको पहुंच जाते हैं और दोनों बच जाते हैं। जातो वयववहा तावतो वाण्या विसहानी। इस प्रकार परस्परमें समन्वय करनेस जैसे अंध और ते चेवय परसमया सम्मत् समुदिया सन्दे
शु नी बीवन-रक्षा हुई उसी प्रकार म. महावीरके इस समजितने भी मार्गमिव मि पंच-संसारमें न्यवादने सर्व दिशाबों में फैल कर उलझी हुई असत्य दिखाई दे रहे है उतने ही नर है और वे ही फरसमय या समस्याओं को सुबमाने और परस्परमें सौहार्दभाव बढ़ानेमें मत है। सब अपने अपने रिकाबोंसे ठीक हैं। और लोकोतर कार्य किया। उन सबका समुदाय ही सम्बकत्व देवानी सत्वमा पार्व इस प्रकार भ. महावीरने परस्पर विरोधी अनेक धर्मोंवा सावक स्वरूप
का समन्वय किया। उनके इस सर्वधर्म सममावी समन्वय
---- जनक बनेकान्तवादसे प्रभावित होकर एक महान प्राचार्य१२. पारदोहा ..। १३ समयसार मा.२३१ . सन्मतितर्क
पत्वाचाठिक पृ०१. वयाचार्तिक...