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अनेकान्त
[वष १४
सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र मिलाकर ७८ तीर्थक्षेत्रों- उल्लेख है उनकी समृद्धिका वर्णन तत्कालीन का परिचय दिया गया है इस तीर्थावली' का सारांश श्वेताम्बर साधु शीलविजयजीने भी किया है । हमने मराठी मासिक सन्मतिमें प्रकाशित कराया इसके बाद उल्लेखनीय लेखक कवि धनसागर
हैं। आपने कारंजामें ही सम्वत् १७५६ में 'पार्श्वआपकी दूसरी रचना 'अक्षर बावनी' है । इम- पुराण' की रचना की । आप भी काष्ठासंघक ही की प्रशस्ति परमं विदर्भक साथ आपका सम्बन्ध अनुयायी थे। आपके ग्रंथकी प्रशस्ति इस प्रकार हैस्पष्ट होता है जो इस प्रकार है
देश वराड मझार नगर कारंजा सोहे। काष्ठासंघ समुद्र विविध रत्नादिक पूरित ।
चंद्रनाथ जिन चैत्य मूल नायक मन मोहे ॥ नंदीतटगछ भाण पाप मिध्यामति चूरित ।।
काप्टासंघ सुगच्छ लाडबागड बडभागी। विद्यागुणगंभीर रामसन मुनि राजे ।
बघेरवाल विख्यात न्यात श्रावक गुणरागी । तास अनुक्रम धीर श्रीभूषण सूरि गाजे ।।
जिनधर्मी जमुना संघपति सुत पूजा संघपति वचन । कलियुगमा श्रृनचली पट्दर्शनगुरु गछपती। चित में धरी अन्याग्रह थकी रनी मुधनसागर रचन ॥१४५ तास शिष्य एवं पति ब्रह्म ज्ञानसागर यती ॥५३॥ पोदशशत एक बीम शालिवाहन शक जाणो। वंश बघेर प्रसिद्ध गोत्र एह भणिज्जे ।
रस भुज भुज भुज प्रमित पीर जिन शाक बखाणो ॥ श्रावक धर्म पवित्र काष्ठासंघ गणिज्जे ॥
उपयुक्त दोनों ग्रन्थांकी प्रशस्तियाँ स्थानीय हस्तसंधपति बापू नाम लघु वय इहु गुणधारी।
लिखित प्रतियोंसे दी गई हैं। दयावंत निर्दोष मब जनक सुग्बकारी ॥
काष्ठासपके समान मूलमंधके भी भट्टारक-पीठ उमकी प्रीत निशपथे पढने बानी करी।
विदर्भमें थे । यहाँ के भट्टारक धर्मचन्द्रके शिष्य ब्रह्म ज्ञानसागर वदति यागम तत्व अमृत भरी ॥५॥
गंगादासकी दो रचनाए स्थानीय सेनगणमन्दिरमें इस प्रशस्तिमें जिन वापू संघईका उल्लेख है वे मिलती हैं-आदित्यवार कथा तथा वेपन-क्रियाकारजा (जिला अकोला) के उस ममयके ख्यात- विनती। पहली रचना सम्बत् १७५० में लिखी गई नामा श्रीमान थे। उनके द्वारा प्रतिष्ठित की गई है। इन दोनांकी प्रशस्तियाँ इस प्रकार हैंकई मूर्तियाँ वहॉ के काप्ठासंघ मन्दिर में मौजूद हैं।
आरित्यवार-कथा इम विषय में उल्लम्बनीय दमरे कवि पामो है।
। विशालकीति विमल गुण जाण । जिनशासनकज प्रगम्यो भाण आपने कारंजाम ही शक सं० १६१४ में 'भरत भुज
तन्पद कमलदलमित्र । धर्मचंद धृतधर्म पवित्र ॥ ११२ ॥ बली' नामक काव्य लिखा । आप भी काष्ठासंघके ही
तेहनो पंडिक गंगादास । कथा करी भवियण उल्हास ।। अनुयायी थे। अापके ग्रन्थकी प्रशस्ति इस प्रकार है
शक सोला शत पनर पार । सुदि आषाढ बीज रविवार ॥११३ गछ नंदीतट विद्यागण मुद्रकीर्ति नित बंदिये।
वेपन-क्रिया-विनती तस्य शिष्य पामो कहे दुख-दारिद्र निर्कदिये ॥२१॥ सक सोडस सत चौद बुद्ध फाल्गुण सुद पक्षह ।
कारंजे सुम्व करण चन्द्रजिन गेह विभूषण । चतुर्थि दिन चरित्र धरित पूरण करी दक्षह ।।
मूलसंघ मुनिराय धर्मभूपण गतदूषण । काग्जो जिनचंद्र इंद्रवंदित नमि स्वार्थे ।
विशालकीर्ति तस पाट निखिल वंदिन नरनायक । संघवी भोजनी प्रीत तेहना पठनार्थे ।
तस पट्टांबुजसूर धर्मचन्द्रह सुखदायक ॥ बलि मकल श्री संघने येथि सहू वांछित फले।
तस पत्कजपट्पद मुद्रा गंगादास वाणी वदे। चक्रिकामनाये करी पामो कह सुरनरु फले ॥२१॥ त्रिपंचास क्रिया मदा भवियण जन राखो हृदे ॥११॥ उल्लेखनीय है कि यहाँ जिन संघवी भोजका आगे चलकर भट्टारक धर्मचन्द्रकी परंपरामें २ सन्मति वर्ष ६, पृष्ठ ३२१
३ जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ ४५५ ।