________________
२००]
अनेकान्त
[विर्ष १४
-
क्षणभंगुर वस्तुओंकी प्राप्तिमें लगे रहनेस ही होता है। तरह एक दिन वह यह भली-भांति समझ लेगा कि आत्मादृश्यमान सारे पदार्थ पौद्गलिक हैं, जड़ हैं। श्रात्मा तो में मग्न रहना ही सच्ची शान्ति है। यदि इस प्रकार हमें दिखाई देती नहीं, अतः शरीरको ही हमने सब कुछ विश्वका प्रत्येक प्राणी समझ ले तो फिर विश्वकी अशांतिका मान लिया है। उसीको सुम्बी रखनेके लिये धन-सम्पत्ति कोई कारण ही न रहेगा। परिग्रह-संग्रह और ममत्व बुद्धि इत्यादिको येन केन प्रकारण जुटाने में संलग्न रहते हैं। इस ही अशान्तिका दूसरा कारण है। तरह हम पर वस्तुओंकी प्राप्तिकी तृष्णामें ही जीवन-यापन आजका विश्व भौतिक विज्ञानकी तरफ आँख मूंदकर करते हुए अपनी वस्तु अर्थात् श्रात्मभाव, श्रान्मानुभवसे बढ़ता चला जा रहा है। योरोपकी बातें छोड़िये। वह तो परान्मुम्ब हो रहे हैं, यही अशान्तिका सबसे प्रधान, मूल भौतिक विज्ञानके अतिरिक्त आध्यात्मिक विज्ञानको जानता और प्रथम कारण है।
तक नहीं , सब भौतिक विज्ञानके अधिकाधिक विकास में ही
मनुप्योंकी पराकाष्ठा मानता है। फलतः अणु बम जैसे जड़ पदार्थ सीमित हैं और मानवकी इच्छाएं अनन्त
सर्व संहारक शस्त्रका आविष्कार करता है। केवल भारतवर्ष हैं । अत ज्योंही एक वस्तुकी प्राप्ति हुई कि दूसरी वस्तुको
ही एक ऐसा देश है कि जहां अनादि कालसे प्राध्यात्मिकधारा ग्रहण करनेकी इच्छा जागृत हो उठती है। इस तरह तृष्णा
अजस्र गतिसं प्रवाहित होती श्रा रही है और समय-समय बढ़ती चली जाती है और उत्तरोत्तर अधिक संग्रहकी कामना
पर दशक महापुरुषों ऋषियोंने इसे और भी निर्मल तथा मनमें उद्वेलित हो उठनी है। जिससे हम व्यन व अशान्त
सचेत बनाया और इस धाराका पीयूष-सम जल पीकर हो जाते हैं । इसी प्रकार अन्यान्य व्यक्रि भी संग्रहकी इच्छा
अनेक मानव संतुष्ट हुए । अब योरोप भी भारतकी ओर करते हैं और प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है। अशान्तिको चिन
अाशाकी दृष्टि लगाए देख रहा है क्योंकि उसे इस देशको गारियां छूटने लगती हैं। व्यकि वे देशकी अशान्ति रूप
अहिंसा-भूनि महात्मा गांधीकी प्रान्मिक शान्तिका आभास जाला धधक उटी कि वह सारे विश्व में फैल जाती है और
मिल चुका है । वह समझ गया कि अहिसाकी कितनी बड़ी एक विश्वव्यापी युद्धका अग्निकुण्ड प्रज्वलित हो उठता है।
शनि है। जिसके द्वारा भारतवासी अंग्रेजोंके शनिशाली जिससे सारे विश्वका साहित्य, जन-समूह, सपत्ति, जलकर
साम्राज्यले बिना शस्त्रोंक लिए भी समर्थ तथा सफल हुए। राव हो जाती है। यही दुनियाकी अशान्तिकी रामकहानी
मिकहानी उन्होंने बड़ी सफलतापूर्वक अपनी चिराभिलषित स्वतंत्रता है। इसके लिए समय-समय पर विभिन्न देशों में उत्पन्न
दशाम उन्पन्न प्राप्त की । वे समझने लगे हैं कि भारतही अपने आध्यात्मिक
माने लगे हैं कि भारतटी हुए महापुरुष यही उपदेश दिया करते है कि 'अपनेको मानक
ज्ञानके द्वारा विश्व-कल्याण कर सकता है और प्रात्मानुभव. पहचानों' 'परायको पहचानों' फिर अपने स्वरूपमें रही,
से ही अखड शान्ति प्राप्त हो सकती है। 'यह मेरा है, और अपनी आवश्यकताओंको सीमित करो । तृष्णा नहीं
वह व्यक्ति या देश मेरा नहीं है। इस भेद-भावके कारण रहेगी तो संग्रह अति सीमित होगा जिससे वस्तुओंकी कमी
प्राणी अन्य 'प्राणियों के विनाशमें उद्यत होता है। इस न रहेगी। अतः वे आवश्यकतानुसार सभी को सुलभ हो
भेद-भावसे अधिक और कोई बुरी बात हो नहीं सकती। सकेगी। फिर यह जनसमुदाय शान्त और सन्तुष्ट रहेगा। दसरेके दुखको अपना मानकर दुख अनुभव कर उसके किसी भी वस्तुकी कमी न रहेगी। जनसमुदाय भौतिक दुख-निवारणमें सहयोग देना ही मानवता है। पराया कोई वस्तुओंको प्राप्ति सुलभ होने पर उन पर कम असक्त होगा हे ही नहीं, सभी अपने ही हैं ऐसा भाव जहां पाया कि और आत्मज्ञान की तरफ मुकेगा। मानव ज्यों-ज्यों अपने किसीको कष्ट पहुँचनेकी प्रवृत्ति फिर हो ही नहीं सकेगी मात्मस्वरूपको समझनेका प्रयत्न करेगा, त्यों न्यों वह सम- फिर पराया कप्ट अपना ही कप्ट प्रतीत होने लगेगा। झता जायगा कि भौतिक वस्तुए जिनके लिये वह मारा-मारा भारत एक अध्यात्म-विद्या प्रधान देश है। इस देश में फिर रहा है .., जल्द नष्ट होने वाली है, पर उसमें मोह बड़े बड़े अध्यात्मवादियोंने जन्म ग्रहण किया है। उनमें रखना मूर्खता है। इन विचारों वाला श्रावश्यकतासे अधिक प्रायः ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर और बुद्ध संग्रह (परिग्रह) न करेगा और अन्तमें उसे आत्मा ही अवतीर्ण हुए थे। अहिंसा उनका प्रधान सन्देश था। ग्रहण करने योग्य है-यह स्पष्ट मालूम हो जायगा-इस महात्मा गांधी की 'अहिंसा' व 'विश्व प्रेम' भारतके लिए