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१९८] अनेकान्त
वर्ष १४ धीरे सारे आभूषण उतार दिये और सारा शरीर निस्तेज जन-मानसको प्राप्तावित किया और मम्कृतिक बीजोंको हो गया। भरतके मनको बड़ा श्राघात लगा। सोचने पल्लवित किया । लगा—'क्या मैं पराये सौन्दर्य पर इतना अभिमान कर ३. भरतकी ज्ञान-प्राप्ति निवृत्तिकी जगह अनासक्ति रहा था। यह तो मिथ्या अभिमान था। पराये धन, पराये पर जोर देती है। वास्तवमें देखा जाय तो श्रात्म-साधनाका सौन्दर्य और पराई शनि पर किया गया गर्व तो झूठा गर्व मुख्य केन्द्र अनासकि है । निवृत्ति उसीका एक साधन है। है, प्रात्म-वंचना है, ठगी है । हमें अपने ही सौन्दर्यको निवृत्ति होने पर भी यदि अनासक्ति नहीं हुई, तो प्रकट करना चाहिए। प्रान्म-सौन्दयं ही शाश्वत है, नित्य निवृत्ति व्यर्थ है। है। उसे कोई नहीं छीन सकता। उसीको प्राप्तिके लिये प्रयत्न ४. बाहुबलीको घटना त्यागमार्गके एक बड़े विघ्नकी करना चाहिए।'
ओर सकेत करती है। मनुष्य घर-बार छोड़ता है, धन भरतका मन सांसारिक भोग और ऐश्वर्यसे विरक्त हो सम्पत्ति छोड़ता है, कुटुम्ब-कबीला छोड़ता है कठोर मयमके गया। प्रात्म-चिन्तन करते-करते उसी समय कैवल्य प्राप्त मार्ग पर चलता है, उग्र तपस्यायों द्वारा शरीरको सुम्बा हो गया।
डालता है, सभी सांसारिक ग्रन्धियां टूटने लगती हैं। किन्तु भगवान् ऋषभदेवने चिरकाल तक लोगोंको आत्म
ये ही बातें मिलकर एक नई गांठ खड़ी कर देती है । साधक साधनका मार्ग बताया और अन्तमें निर्वाण प्राप्त किया।
अपने म्याग तथा तपस्याका मद करने लगता है। एक और
उग्रचर्या करता है, दूसरी पार गांठ मजबूत होती जाती 1. भगवान् ऋषभदेवका जीवन कई दृष्टियोंसे महत्त्व
है। परिणाम-स्वरूप वह जहाँका तहां रह जाता है। कई पूर्ण है। उन्होंने केवल त्यागमार्गका उपदेश नहीं दिया,
वार तो ऐसा भी होता है कि अहकार मोधको जन्म देता किन्तु समाज-रचना और अर्थ व्यवस्थाके लिए भी मार्ग
है और आगे बदनक स्थान पर पतन प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन किया था । खेती करना. कपड़े बुनना, बर्तन बनाना,
साधकको पद-पद पर इस बातक ध्यान रग्वनेकी श्रावश्यश्राग जलाना, भोजन बनाना श्रादि अनेक कलाएं सिखाई
कता है कि उसके मनमें यह गांठ न वधन पाये। इसके थीं। वर्तमान जैन समाज जो एकांगी निवृत्तिकी ओर झुकता
लिए उसे अत्यन्त विनयी तथा नम्र बने रहना चाहिये । जा रहा है, उनके जीवनसे शिक्षा प्राप्त कर सकता है। आत्म
मान पूजा या प्रतिष्ठाको कोई महत्त्व नहीं देना चाहिए। साधना और धर्म या प्रादर्श चाहे निवृत्ति हो, किन्तु समाज
ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा भाईको प्रतिबोध दिया जाना रचना प्रवृत्तिके विना नहीं हो सकती । ऋपभदेवने जीवनके
स्त्री समाजके सामने एक उज्ज्वत श्रादर्श उपस्थित करता दोनों पहलू अपने जीवन-द्वारा उपस्थित किये।
है। अगर महिला समाज अपने भाई तथा पतियोंको झूठी २. भगवान् ऋषभदेवकी पूजा केवल जैनियों तक प्रतिष्ठाके नाम पर झगड़के लिए उभारनेकी जगह उन्हें मीठे सीमित नहीं है। वैदिक परम्परामें भी उनको विष्णुका शब्दोंसे शान्त करनेका प्रयत्न कर, तो बहुत सा कलह याही अवतार माना गया है। प्राचीन साहित्यमें तो उनका वर्णन मिट जाय । नम्रताकी शिक्षा के लिए पुरुषकी अपेक्षा स्त्रियां मिलता ही है, उनकी पूजा भी यत्र-तत्र प्रचलित है । उदय- अधिक उपयुक्त है। पुरके समीप केसरियाजीका मन्दिर इसका स्पष्ट उदाहरण ५ जैनधर्ममें भाद्रपद शुक्ला पंचमीको पर्युषणका है। जैन-परम्पराकी मान्यता है कि भगवान् ऋषभदेवने सांवत्सरिक पर्व मनाया जाता है । जैनियोंका यह सबसे बड़ा वर्ण-व्यवस्थाका प्रारम्भ किया । वृद्धावस्थामें संन्यासको पर्व है। इसी दिन वैदिक परम्परामें ऋषिपचमी मनाई अपनाकर उन्होंने आश्रमधर्मको भी कायम रखा। उनका जाती है । ऋपिपंचमी और पर्युपण दोनों अन्यन्त प्राचीन जीवन वैदिक परम्परासे भी मेल खाता है। इस प्रकार पर्व हैं और इनकी ऐतिहासिक उत्पत्तिक विषयमें दोनों भगवान् ऋषभदेव भारतकी श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों परम्पराएँ मौन हैं। पं. सुखलालजीकी कल्पना है कि परम्पराओंके श्रादि पुरुषके रूपमें उपस्थित है। ये उस उच्च ऋपिपंचमी वस्तुतः ऋषभ-पचमी होनी चाहिए। ऋषिहिमालयके समान प्रतीत होते हैं जिसके एक शिखरसे गगा पंचमी चाहे ऋषभपंचमीसे बिगड़कर बनी हो, या वही दूसरे शिखरसे यमुना वही । दोनों दिन्य स्रोतोंने भारतीय नाम मौलिक हो किन्तु इतना अवश्य प्रतीत होता है कि