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किरण कविवर भगवतीदास
[२२६ आय शानके संग, आप दर्शन गहि लीजे। ध्यान करने आदि वाक्योंके द्वारा अपनी आत्माको कीजे थिरताभाव, शुद्ध अनुभौ रस पोजे । हितमें लगानेकी स्वयं प्रेरणा की है। दीजे चडविधि दान, महो शिव खेत-बसैया ।
कविवरके पदोंमें भक्तिभावके साथ सिद्धान्त, तुम त्रिभुवनके राय, भरम जिन भूलहु भैया ॥ अध्यात्म, वैराग्य और नीतिकी गंभीर अभिव्यंजना इसी तरह कवि शरीरकी अस्थिरताका भान हुई है । पार्थिव सौन्दर्यकी लुभावनी चकाचौंधसे कराते हुए कहते हैं कि-हे आत्मन् !तू इस शरीर- उन्मत्त हुए जीव जो आत्मरहस्यसे सर्वथा अपरिसे इतना स्नेह (राग) क्यों करता है, अन्तमें इसकी चित है, उन्हें सम्बोधित करते हुए ज्ञान-वैराग्य रूप कोई रक्षा न हो सकेगी। तू बार बार यह कहता है सुधामृतसे सिंचित और स्वानुभवसे उद्बोलित कविकि यह लक्ष्मी मेरी है, मेरी है, परन्तु कभी क्या वरका निम्न पद देखिये जिसमें वस्तु-स्थितिका सुन्दर वह किसीके स्थिर होकर रही है ? तू कुटम्बीजनोंसे चित्रण किया गया है । और बतलाया है कि इस इतना मोह क्यों कर रहा है, शायद उन्हें तू अपना परदेशी शरीरका क्या विश्वास ? जब मनमें आई, समझता है । पर वह तेरे नहीं हैं। वे सब स्वार्थके तब चल दिया । न सांझ गिनता है न सबेरा, दूर सगे हैं-साथी हैं। अतएव हे चेतन ! तू चतुर है देशको स्वयं ही चल देता है कोई रोकने वाला नहीं। चेत । संमारकी ये सभी दशा झूठी हैं। जैसा कि इससे कोई कितना ही प्रेम करे,आखिर यह अलग निम्न सवैयासे स्पष्ट है:
हो जाता है। धनमें मस्त होकर धर्म को भूल जाता काहे को देह से नेह करै तुब, अंतको राखी रहेगी न तेरी, है और मोहमें झूलता है । सच्चे सुखको छोड़कर मेरी है मेरी कहा करै लच्छिमीसौं, काहुकी है के कह रही नेरी। भ्रमकी शराब पीकर मतवाला हुआ अनन्तकालसे मान कहा रयो मोह कुटुम्बसौं, स्वारथके रस लागे सगेरी। घूम रहा है, हे भाई ! चेतन तू चेत, अपनेको संभाल। तात तू चेत विचक्षन चेतन, झूठी है रीति सबै जगकेरी ॥१. इस पदका अन्तिम चरण तो मुमुक्षुके लिये अत्यन्त इस तरह कविने 'अष्टोत्तरीके उन पर शिक्षाप्रद है, जिसमें अपनेको श्राप द्वारा ही संभा
- अपनको भान कराने वाले आत्मज्ञानका मटा लनेका प्ररणा काग उपदेश दिया है। रचना बड़ी ही सरस और मनो
कहा परदेशी को पतियारो॥ मोहक है । कवि केवल हिन्दी भाषाके ही कवि नहीं मन माने तब चलै पंथको, सांझ गिनै न सकारो । थे। किन्तु वे उर्दू और गुजराती भाषामें भी अच्छी सबै कुटुम्ब छांदि इतही पुनि त्यागि चलै तन प्यारो ॥१ कविता रचनेमें सिद्ध हस्त थे। धार्मिक रचनाओं- दर दिशावर चल्लत प्रापही, कोड न राखन हारो। को छोड़कर शेष रचनाएँ भी सन्दर और उदय कोऊ प्रीति करौ किन कोटिक, अंत होयगो न्यारो॥२ ग्राही हैं। उन रचनाओं में से कविकी कुछ रचना- धनसौं रादि धरमसौं भूलत, मूलत मोह मझारो।
ओंका परिचय आगे दिया जारहा है, आशा है इह विधि काल अनंत गमायो, पायो नहिं भव-पारो॥ पाठक उससे कविके सम्बन्ध में विशेष जानकारी सांचे सुखसौं विमुख होत है, भ्रम-मदिरा-मतवारो। प्राप्त कर सकेंगे। कविवरने केवल पर उद्बोधक ही चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया' भापही आप संभारो॥४ रचना की हो, ऐसी बात नहीं है, किन्तु उन्होंने कविका मानस अध्यात्मकी छटासे उद्वेलित है, अपने अन्तमोनसको जागृत करनेके लिये कितने ही वह अपने हृदय-कुजमें आत्म कल्याणकी पावन स्थलों पर 'भैया' तू चेत जैसेवाक्योंका प्रयोग किया भावनासे प्रेरित हो, संसारके सम्बन्धों की अस्थिहै। यथा
रताका भान कराता है। आकाशमें घुमड़ने वाले 'निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभुको, जो टारै भव-भीरा रे।
बादलोंके समान क्षणभंगुर एवं उद्दाम वासनाओंका 'भैया' चेत धरम निज अपनो, जो तार भव-नीरा रे ॥
सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए अपनेको पिछाननेका साथ ही अपनेको सचेत होने, वीतराग प्रभुका सुन्दर संकेत किया है, कवि कहता है-हे प्रात्मन् !