Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 270
________________ २२८] अनेकान्त [वर्ष १४ वर्षाऋतु मेघ झरै तामें वृक्ष केई फरै, और विषय-भोग ये सब कर्मोंका भ्रमजाल है, जरत जवासा अब बापुही ते डहिकैं। अनित्य और क्षण-विनाशी है। परन्तु मूढ़ मानव ऋतुको न दोष कोड पुन्य-पाप फलै दोङ, इनमें मग्न होकर इन्हींके संग्रहके लिये तरसता जैसे जैसे किये पूर्व तैसे रहें सहिके। हुआ मृत्युकी गोद में चला जाता है। केई जीव सुखी होंहि केई जीव दुखी होंहि, इसी तरह ये निम्न पद्य भी शिक्षा-प्रद और देखहु तमासो 'भैया' न्यारे नैकु रहिक ॥२४॥ यात्म-शंबोधनको लिये हुए हैगर्मीमें धूप तेज पड़ती है, उससे समस्त भूतल "जीवन कितेक तापै सामा तू इतेक करे, जलता है परन्तु पाक वृक्ष (अकोला) बड़ी उमंगके लक्षकोटि जोरि जोर नैकुन अघातु है। साथ फूलता है । वर्षाऋतुमें मेघ बरसता है जिससे चाहतु धराको धन प्रान सब भरों गेह, चारों ओर हरियाली हो जाती है। अनेकों वृक्ष यों न जाने जनम सिरानो मोहि जातु है । फलते-फूलते हैं परन्तु जवासेका पेड़ अपने आप काल सम र जहाँ निश-दिन घेरो कर, ही जलकर गिर पड़ता है। हे भाई, इसमें ऋतुका ताके बीच शशा जीव कोलौं ठहरातु है। कोई दोष नहीं है, किन्तु यह पुण्य पापका फल है देखतु है नैननिसौं जग सब चल्यो जात, जिसने जैसे कर्म किये हैं उसे उसी तरहसे उनका तऊ मूढ चेत नाहि लोभ ललचातु है ।। फल भोगना पड़ता है। कोई जीव पुण्यके कारण हे आत्मन् ! यह मानव जीवन कितनी अल्पसुखी, और कोई जीव पाप-वश दुःखी होते हैं। स्थितिको लिये हुए है फिर भी तू उस पर इतना अतः हे भाई ! तू पुण्य और पाप दोनोंसे अलग अभिमान कर रहा है । लाखों करोड़ोंकी सम्पदाको रहकर संसारका तमाशा देख । कविने इस कवित्तमें जोड़ता हुआ जरा भी नहीं अघाता-तेरी तृष्णा कितनी सुन्दर शिक्षा प्रदान की है। बढती ही जाती है सन्तोष नहीं करता। तू चाहता कवि कहते हैं कि पुण्यके द्वारा प्राप्त हुए है कि पृथ्वीकी सारी धनराशि उठाकर अपना घर सांसारिक वैभवको देखकर अभिमान मत कर। भरलूँ, परन्तु तू यह नहीं समझता कि मेरा जीवन 'धूमनके धौरहर देख कहा गर्व करे, ही समाप्त होने जारहा है। कालके समान कर बे तो छिनमाहि जाहि पौन परसत ही । दिन-रात जहाँ घेरा डाल रहे हैं, तब उनके मध्यमें संध्याके समान रंग देखत ही होय भग, स्थित खर गोश कबतक अपनी खैर मना सकता है ? दीपक पवन जैसे काल-गरसत ही । तू अपने नेत्रोंसे जगतके सब जीवोंको परलोकमें सुपनेमें भूप जैसे इन्द्र-धनु रूप जैसे, जाते हुए देख रहा है, तो भी यह मूढ जीव अपनी प्रोस बूंद धूह जैसे दुरै दरसत ही । ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता और न जागएसोई भरम सब कर्मजान वर्गणाको, रूक होता, लोभके फन्देमें फँसा हुआ ललचा रहाहै। तामें मूढ़ मग्न होय मरै तरसत ही ॥ और भी कवि कहते हैं कि-हे भाई तू पुदगलइस पद्यमें बतलाया गया है कि हे आत्मन् ! तू की संगति में अपने भरमको मत भूल, ज्ञानके सहइन धुएँ के मकानोंको देखकर क्यों व्यर्थ गर्व करता योगसे तू अपना काम सम्हाल, अपने दृष्टि (दर्शन) है,ये तो हवाके लगते ही एक क्षणमें नष्ट हो जायेंगे। गुणको ग्रहण कर । और निजपदमें स्थिर हो शुद्ध सन्ध्याके रंगके समान देखते-देखते ही छिन्न-भिन्न आत्म-रसका पानकर, चार प्रकारका दान दे, तू हो जावेंगे। जैसे दीपक पर पड़ते ही पतंग कालके शिव-खेतका वासी है और त्रिभुवनका राजा है, मुखमें चले जाते हैं. अथवा सपने में प्राप्त किया अतः हे भाई तू भरममें मत भूल । जैसा कि उनकी राज्य और इन्द्र-धनुषके विविध रूप ओसकी बूंदके निम्न कुंडलियासे प्रकट है:समान ही क्षणभरमें विनष्ट हो जाते हैं इसी तरह भैया भरम न भूलिये पुद्गल के परसंग । यह राज्य वैभव, धन दौलत, महल-मकान, यौवन अपनो काज सँवारिये, माय ज्ञानके संग ॥

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