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विश्वशान्तिका सुगम उपाय-आत्मीयताका विस्तार
(श्री अगरचंद नाहटा) विश्व-शान्तिके लिए सभी लोग प्रयत्नशील और आत्मीयताका भाव गहरा प्रतीत होता है। मेरे अपने अनुइच्छुक हैं और उसके उपयुक वातावरण भी नजर आ रहा भवकी बात है । गौरीशंकरजी अोझा, पुरोहित हरिनारायणहै। इस समय सोचना यही है कि किस उपायसे काम जी आदिकी स्मृति होते ही उनकी प्रात्मीयताका रस्य सम्मुख लिया जाय | हर व्यक्तिक अपने-अपने विचार हैं। इस लेख- श्रा उपस्थित होता है। आदरणीय वयोवृद्ध भैरवदत्तजी में मैं अपना विचार संक्षेपमें रख रहा हूँ। मेरे मनकी श्रासोया व रावतमल जी बोयरा आज भी जब कभी मिलते संकुचित भावनाके कारण ही प्रधानतया संघर्ष होता है। हैं, हर्षसे गद्गद् हो जाते हैं। उनकी मुरझायी हृदयकली जैसा व्यवहार हम दूसरोंसे चाहते हैं वैमा व्यवहार दूसरोंके मानो खिज-सी जाती है। जिसकी अनुभूति उनके चेहरेसे साथ नहीं रखने, यही सबसे बड़ी कमी है।
व बोलीसे भलीभांति प्रकट हो जाती है । यद्यपि मेरा उनसे अहिंसा सिद्धान्त हमें प्राणिमात्रके साथ प्रेम व सद्- वैसा निकटवर्ती पारिवारिक सम्बन्ध नहीं है। अपने ४० भावनाके व्यवहार करनेका संदेश देता है। विश्वमें समस्त वर्ष तकके आयु वाले निकट सम्बन्धियोंमें भी मुझे वैसी प्राणी हमारी जैसी ही आत्माएँ हैं । इसलिए सबमें मैत्री भावना आत्मीयताके दर्शन नहीं होते। कई वृद्ध पुरुषोंको मैंने
और समान व्यवहार होना आवश्यक है और वह तभी हो देखा है उनमें प्रात्मीयताका भाव इतना गहरा होता है कि सकता है जब मेरेपनका संकुचित दायरा बढ़कर सबके साथ वे मिलते ही हर्षातिरेकसे प्रफुल्लित हो जाते हैं। अपने पनकी अनुभूति हो। जब सभी प्राणी अपने प्रात्मीय
प्राचीन काल में संयुक्त परिवारकी समाज-व्यवस्था के सदृश अनुभव होने लगते हैं तो एकका दुःख दूसरेका दुःख
इसलिए अधिक सफल हो सकी थी। आज तो सगे भाई भी बन जाता है और फिर किसीके साथ दुर्व्यवहार, हिंसा,
न्यारे-न्यारे हों तो उसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं, पर छल, ई-द्वेष होने का कोई कारण नहीं रहता। अत:
पिता और मातासे भी पुत्र अगल हो रहे हैं । जहां पहले आत्मीयताका विस्तार ही विश्व-शान्तिका सुगम उपाय है।
एक ही कुटुम्बमें पचास व्यकियोंका निर्वाह एक साथ प्रत्येक व्यक्ति जो श्राज अपने पुत्र कुटुम्ब समाज व देशकी
होता था, वहां आज दो भी प्रेमके साथ नहीं रह सकते। आत्मीयताको अनुभव करता है उसे बढ़ाते हुए सारे विश्वके साथ हम एक रूप बन जायेंगे।
इसका प्रधान कारण आत्मीयताका हास ही है। आप न आत्मीयता अर्थात् अपनेपनकी अनुभूति, विश्वके रह सकता हर जगह व मल हा अलग-अलग रह, पर एक प्रायः समस्त प्राणियोंमें प्रात्मीयता सहज स्वभावके रूपमें दूसरका दखनस प्रमक स्थान पर द्वष भाव जागृत हो पाई जाती है। पर उसकी परिभाषामें काफी अन्तर रहता उठता है, तब साथ जीवन अशान्तिका साम्राज्य बन बिना है। किसीमें वह बहुत सीमित दिखाई पड़ती है तो किसीमें नहा र
नहीं रह सकता है। वह असीम प्रतीत होती है। इसी प्रकार शुद्धि एवं घनी- ऐसी ही स्थितिसे मानव मानवका शत्रु बनता है। भूतताका भी अन्तर पाया जाता है। माताकी पुत्रके साथ गृह-कलह बढ़ता है। यावत् बड़े-बड़े महायुद्ध उपस्थित इसी प्रकार पारिवारिक कौटम्बिक-आत्मीयता होती है। होते हैं। विश्वकी वर्तमान स्थिति पर दृष्टि डालते हुए यह उसमें मोह एवं स्वार्थ रहनेसे भी शुद्धि नहीं होती, जब कि यात दीपकवत् स्पष्ट प्रतिभासित होती है। भाये दिन महासन्तोंकी आत्मीयतामें यह दोष नहीं रहनेसे वह शुद्ध युद्धके बादल छाये हुए नजर आते हैं। आशंका तो प्रति समय रहनी है। किसी किसीके अपनेपनकी अनुभूति पाई अधिक बनी हुई है कि कब कौन किससे लड़ पड़े औरयुद्ध छिड जाती है तो किसीमें वह साधारण होती है।
जाय । यदि प्रास्मीयताका भाव विस्तृत किया जाय, तो यह प्राचीन कालमें मनुष्यों में सरलता व प्रेम बहुत अधिक नौबत कभी नहीं आने पावे । तब प्रतिपक्षी या विरोधी कोई मात्रामें होता था। वर्तमानमें सरलताकी बहुत कमी हो गई रहता ही नहीं है। सभी तो हमारे भाई हैं, मानव हमारे है और स्नेह भी दिखाऊ ज्यादा हो गया है। कपट एवं सदृश ही चैतन्य-स्वरूप प्रात्मा होनेसे हमसे अमित है। स्वार्थकी अधिकता हो जानेसे आत्मीयताका बहुत ही हास अतः किससे लड़ा जाय ? उसका कष्ट अपना कष्ट है। हो गया है। आज भी वृद्ध एवं भोले भाले ग्रामीणों में इसकी बरवादी अपनी ही बरवादी है। अतः प्रात्मीयताके