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किरण ८]
जगतका संक्षिप्त परिचय
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तथा अस्त होनेके कारण दिन-रात हश्रा करते हैं। सूर्य शील मानकर गणित निकालते हैं। वे पृथ्वीको गेंदके चन्द्रका भ्रमण उत्तरायण ( उत्तरकी पोरकी परिक्रमा) आकारमें गोल मानते हैं । किन्तु यह मान्यता अभी तक तथा दक्षिणायन (दक्षिणकी ओर परिक्रमा के रूपमें विवादास्पद है। उनके विदेशी विद्वानोंने अपनी विभिन्न नियमित रूपसे होता है, इसी कारण गणितके अनुसार अकाव्य युक्रियोंसे इस मान्यताको गलत ठहराते हुये चुनौती ज्योतिष वेत्ता विद्वान चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहणका नियत समय दी है। अनेक यूरोपीय विद्वान् पृथ्वीको स्थिर और सूर्यको पहले ही जानकर बतला देते हैं।
गतिशील युक्तिपूर्वक बतलाते हैं । (विस्तारके भयसे हम पृथ्वीतलसे ७१० योजनकी ऊँचाई पर आकाशमें तारे यहां उन युक्तियोंको नहीं दे रहे हैं।) घूमते हैं, उनसे १० योजन ऊँचा सूर्य है, उससे ८० मध्यलोकसे उपर सुखमय वातावरण वाला ऊर्ध्वलोक योजनकी ऊँचाई पर चन्द्रमा है। फिर नक्षत्र, बुध, शुक्र, है जिसके अनेक अन्तर्विभाग है। उस सुखमय प्रदेशको बृहस्पति, मंगल और शनैश्चर (शनीचर) हैं। ११. 'स्वर्ग' कहा जाता है। वहां पर एक नियत समय तक योजन मोटे प्राकाश-प्रदेशमें समस्त ज्योतिष-चक्र है। रहने वाले प्राणियोंको 'देव' नामसे कहा जाता है।
मध्यलोकमें असंख्य गोलाकार द्वीप और समुद्र हैं। सबसे ऊपरका क्षेत्र 'मोक्ष' स्थान कहा जाता है। हमारा निवास-क्षेत्र जम्बूद्वीपमें है, जो कि एक लाख योजन संसारी जीव कर्म-बन्धनसे मुक्त होकर, सांसारिक आवालम्बा चौड़ा (गोल) है। हम जिस भरत-क्षेत्रमें रहते हैं, गमन (जन्म-मरण) से प्रतीत होकर उसी उपरिवर्ती वह जम्बूद्वीपका धनुष-पाकार बहुत छोटा अंश है। भरत स्थानमें पहुँच कर अनन्त कालके लिये (सदाके लिये) क्षेत्रके प्रार्यखण्डमें ये एशिया, अफ्रीका, यूरोप अमेरिका स्थिर (विराजमान )हो जाते हैं। और आष्ट्रेलिया तथा हिन्द महासागर, प्रशान्त, प्रतला- हमारा निवास मध्यलोकमें है। अपने उपार्जित कर्मके न्तक आदि समुद्र हैं। जम्बूद्वीपवर्ती ज्योतिष-चक्रमें दो अनुसार संसारी जीव विभिन (मनुष्य, पशु, देव, नरक, सूर्य दो चन्द्र हैं जो कि समानान्तर पर भ्रमण करते हैं। योनियों में जगतके विभिन्न क्षेत्रोंमें भ्रमण करता हुआ अपना आधुनिक विदेशी विद्वान सूर्यको स्थिर और पृथ्वीको गति- अच्छा बुरा कर्म-फल प्राप्त किया करते हैं।
विचार-कण आत्म विश्वास एक विशिष्ट गुण है । जिन मनुष्योंका आत्मामें विश्वास ही नहीं, वे मनुष्य धर्मके उच्चतम शिखर पर चढ़ने के अधिकारी नहीं।
मुझसे क्या हो सकता है ? मैं क्या कर सकता हूँ ? मैं असमर्थ हूँ, दीन-हीन हूँ ऐसे कुत्सित विचार वाले मनुष्य आत्म विश्वासके अभावमें कदापि सफल नहीं हो सकते।
सती सीतामें यही वह प्रशस्तगुण (आत्मविश्वास) था जिसके प्रभावसे रावण जैसे पराक्रमीका सर्वस्व म्वाहा हो गया, सती द्रोपदीमें वह चिनगारी थी जिसने क्षण एकके लिए ज्वलन्त ज्वाला बनकर चीर खींचनेवाले दुःशासनके दुरभिमान-द्र.म (अभिमान विपबा सुन्दरीमें यही तेज था जिससे बञमयी फाटक फटाकसे खुल गया। सती कमलश्री और मीराबाई के पास यही विषहारी अमोध मंत्र था जिससे विष शरबत हो गया और फुफकारता हुआ भयंकर सर्प सुगन्धित सुमनहार वन गया।
अस्सी वर्षकी बुढ़िया आत्मबलसे धीरे धीरे पैदल चलकर दुर्गम तीर्थराजके दर्शनकर जो पुण्य संचित करती है वह आत्मविश्वास में अश्रद्धालु डोली पर चढ़कर यात्रा करने वालोंको कदापि सम्भव नहीं।
बड़े बड़े महत्त्व पूर्ण कार्य जिन पर संसार आश्चर्य करता है आत्मविश्वासके बिना नहीं हो सकते।
-वीवाणीसे