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जिसमें मॉम-
नहीं, श्रमण जन सदा
सरकार-द्वारा मांस-भक्षणका प्रचार
(पं० हीरालाल सिद्धान्त-शास्त्री) 'अहिंसाके नामसे हिंसाका बाजार गर्म' शीर्षक लोक-परलोक और पुण्य-पाप कुछ नहीं मानते हैं, उनके एक लेख 'अहिंसा' पत्रके १ जनवरी ५७ के अंकमें कर कार्योंका अन्धानुसरण हमारी वह भारत सरकार कर प्रकाशित हुआ है, उसका निम्न अंश अति उपयोगी होनेसे रही। है, जिसका जन-जन आस्तिक एवं परलोकवादी है हम यहाँ उसे साभार दे रहे हैं। पाठक गण केवल उसे और पुण्य-पापको मानता है। जीवधात करने वालोंको पढ़कर ही न रह जावें, बल्कि वे पढ़कर दूसरोंको सुनावें ज्ञात होना चाहिए कि जिस प्रकार तुम्हें अपने प्राण प्यारे और अपने आस-पासका वातावरण दिन पर दिन बढ़ती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक प्राणीको भी अपने प्राण प्यारे हैं। हुई इस महाहिंसाके विरुद्ध बनाकर सरकारके इस कुकृत्यकी जिस प्रकार तुम्हें जरा-सा काय चुभने पर कष्ट होता है, भरपूर निन्दा करके नये कसाईखाने खोलने और मांस-भक्षण उसी प्रकार उन्हें भी कष्ट होता है, फिर तुम क्यों उन प्रचारको रोकनेके लिए अपनी पूर्ण शक्ति लगावें। दीन-हीन मूक प्राणियों पर छुरी चलाकर अपनी निर्दयता"जिस भारतमें २००० वर्ष पहले मांसकी एक भी दुकान
का परिचय देते हो! भ. महावीरने अपने प्राय उपदेशमें नहीं थी, उस भारतके इस नौ वर्ष के स्वतंत्रता-कालमें
यही कहा था
सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउंण मरिज्जि। मांसकी दुकानों, कसाईखानों और मांस-भक्षणको पर्याप्तसे
तम्हा पाणि-वहं घोरं समणा परिवज्जयंति एवं ।। भी अधिक प्रोत्साहन मिला है। अहिंसाका नारा लगानेवाली
-आचारांग सूत्र वर्तमान सरकारक खाद्य-विभागने अंग्रेजी भाषामें एक ऐसी
अर्थात्-सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं पुस्तक प्रकाशित की है जिसमें मांस-भक्षणके पक्षमें अनेक युक्तियां देकर मांस-भक्षणको विषेय मार्ग ही नहीं,
चाहता, इसलिये प्राणियोंका घात करना घोर पाप है। किन्तु आवश्यक तथा उपयोगी वतलाया गया है। जब
श्रमण जन सदा ही उसका परित्याग करते हैं। कि विदेशोंमें मांसाहारकी प्रवृत्ति कम होती जाकर शाकाहार
जब भारतवासी लोक-परलोकके मानने वाले हैं, तो की प्रवृत्ति बढ़ती जारही है और संसारके बड़े-बड़े डाक्टर
उन्हें यह भी जानना चाहिये कि जिन प्राणियों पर तुम और विशेष मांसका श्राहार मानवीय प्रकृतिके विरुद्ध
छुरी चलाते हो वे प्राणी भी तुम्हारे पूर्व जन्मोंमें माता, बतलाते हैं। जिन बुराइयोंको विदेशी विवेकी लोग छोड़ते
पिता, भाई, पुत्र आदिके रूपमें सगे सम्बन्धी रह चुके हैं। जारहे हैं, खेद है कि भारतीय उन्हें ग्रहण करते जारहे हैं।"
फिर इस जन्मके सगे-सम्बन्धियोंकी भूख-शमन करनेके
लिये पूर्व जन्मके ही सगे-सम्बन्धियोंको मारकर खा जाना "यह और भी अधिक दुःखकी बात है कि जिस
चाहते हो, आश्चर्य नहीं, महान् आश्चर्य है तुम्हारी इस भारतके खाद्य-विभागसे मांस-भक्षणको प्रोत्साहन देने वाली
मात्साहन दन वाला अज्ञानता पर! यह पुस्तक निकली है, उसके सर्वेसर्वा मंत्री 'जैन महानु- इसके अतिरिक्त मांस खाने वाले मनुष्योंको यह भी भात्र हैं। जैनधर्ममें मांस-भक्षण तो क्या, मांस-स्पर्शको भी तो सोचना चाहिये कि यह मांस न बारिशसे बरसता है, घोर पाप और महान् अपराध माना गया है। भोजनके न जमीनसे उगता है, न वृक्षों पर फलता है, न पर्वतोंसे समय मांसका नाम लेना भी जहां अन्तरायका कारण बन मरता है और न अपने पाप ही उत्पन्न हो जाता है। यह जाता है, वहाँ मांस-भक्षणको प्रोत्साहन दिया जाना बहत तो प्राणियोंके मारने पर ही उत्पन्न होता है। जैसा कि ही लज्जाजनक बात है।"
हमारे महर्षियोंने कहा हैमांस-भक्षणको प्रोत्साहन देने वाली सरकारको यह पर्जन्यः पिशितं प्रवर्षति न तत्प्रोद्भिद्यते ज्ञात होना चाहिये कि अन्नके अभाव में भूखों मरने वालोंकी वृक्षाः मांसफला भवन्ति न, न तत्प्रस्यन्द भुखमरी मिटानेके लिये वह जिस दयालुता या कर्तव्य- सत्त्वानां विकृतिर्नचापि पिशितं प्रादुर्भवत्यन्यथा, तत्परतासे प्रेरित होकर कसाईखाने खुलवा रही है और हत्वा प्राणिन एव तद् भवति हि प्राज्ञैःसदा वर्जितम्। लोगोंको मुर्गी वा मछली पालनेके लिए सहायता दे देकर इसलिए प्राणियोंके घातसे उत्पमा होने वाले ऐसे जोर-शोरसे प्रचार कर रही है, वह उसका एकदम करता- हिंसा पापसे परिपूर्ण मांसको खाने वाला और उसका प्रचार पूर्ण नृशंस-कार्य है। जो पश्चिमी देश नास्तिकवादी है, करने वाला मनुष्य कैसे अहिंसक कहला सकता है। फिर
लोक-परलोकक
यो पर तुम