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छन्द-कोष और शील-संरक्षणोपाय छप चुके
(श्री अगरचन्द नाहटा) अनेकान्तके १४वें वर्पसे माननीय श्रीजुगलकिशोर तानि इह छन्दाकोषाभिधाने छन्दशास्त्रे भणितानि । जी मुख्तारने, अजमेरके शास्त्रभण्डारमें जो ग्रन्थ श्रीमन्नागपुरीय-तपागच्छ-गगनमण्डल नभो-मणिश्रीउन्हें महत्वपूर्ण व अप्रसिद्ध ज्ञात हुए उनका परि- वनसेनसुरि-शिष्यश्रीहेमतिलकसूरि-पट्ट-प्रतिष्ठित श्रीचय "पुराने साहित्यकी खोज" शीर्षक लेखमालामें रत्नशेखर-सूरिभिः कथितानीति । कीदृशानि तानि देना पारम्भ किया है। वस्तुतः अजमेरके शास्त्र- लक्ष्यलक्षण-युतानि । लक्ष्याणि छन्दांसि लक्षण(नि संग्रह में सौ से भी अधिक अप्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण गणमात्रादीनि ततो लक्ष्यैः लक्षणैश्चयुतानि सहिग्रंथ हैं, जैसा कि मैंने मुख्तार साहबके पास उक्त तानि समाप्ता चेयं श्रीरत्नशेखर-सुरि-संतानीयश्रीशास्त्र-भण्डारको कार्डोके रूपमें सूची देखकर राजरत्न-पट्टस्थित-श्रीचन्द्रकीतिसूरि-विरिचित-छन्दःनिश्चय किया। इस भण्डारमें केवल दिगम्बर-ग्रन्थ कोष-नामग्रन्थस्य टीका। इति श्रीछंद-कोप-टीका। ही नहीं पर कुछ श्वेताम्बर रचनाओंकी भी प्रतियाँ ऐसो मिली हैं-जो श्वेताम्बर-भण्डारोंने भी मेरे
___टीकाकार ग्रन्थकारकी परम्पराके ही हैं और देखने में नहीं आई। इस दृष्टिसे यह भण्डार बहुत
रत्नशेखरसूरि और चन्द्रकीतिसूरि दोनों ही सुप्रमहत्वपूर्ण है और मुख्तार साहबने जो यह लेख
सिद्ध विद्वान ग्रंथकार हैं। छन्दकोष मूल रूपमें माला चालू की है वह भी बहुत ही जरूरी और
प्रोफेसर हरि दामोदर बेलकरने सम्पादित करके उपयोगी है।
बम्बई युनीवर्सिटी जरनलके मई १९३३ के अंकमें
प्रकाशित किया था। इससे पहले सन १९२२ में अनेकान्तके गत जनवरी अंकमें इस लेखमाला डन्य महिमने प्रकाशित किया था। इसकी टीकाके अन्तर्गत 'कृत-छन्द-कोप', 'पिंगल-चतुरशीति- की प्रतियाँ तो काफी मिलती हैं, पर शायद अभी रूपक' और 'विधवा-शील-संरक्षणोपाय' नामक तीन तक प्रकाशित नहीं हुई। रचनाओंको अनुपलब्ध समझकर परिचय दिया है। वास्तव में प्राकृत-छन्द-कोष और विधवा-शील- 'विधवा-शील-संरक्षणोपाय' १५वीं शताब्दीकी संरक्षणापाय ये दो रचनाएँ तो अन्यत्र उपलब्ध ही लिखी हुई एक ताड़पत्रीय प्रतिमें विधवा कुलकके नहीं है किन्तु छप भी चुकी हैं और पिंगल-चतुरशीति- नामसे मिला था। वह प्रति पाटण-भण्डारकी थी। रूपक यद्यपि अभी प्रकाशित तो नहीं हआ पर यह विधवा-कुलक कोई अट्ठाईस-तीस वर्ष पहले. इसकी कई प्रतियाँ अन्य संग्रहालयों में भी प्राप्त हैं। भावनगरसे 'जैनधर्मप्रकाश में गुजराती अनुवादके
साथ प्रकाशित हुभा था। जब सम्वत् १९८५ में मैंने प्राकृत छन्दकोपमें वैसे तो ग्रन्थकारने अपना उसे देखा, तो मुझे वह बहुत उपयोगी लगा। मैने म्पष्ट नाम नहीं दिया, पर इसकी टीका चन्द्रकीति- इन दस गाथाओं पर हिन्दी में अपनी उस समयकी सूरि-विरचित हमारे संग्रहमें व अन्य भण्डारों में बुद्धिके अनुसार २६ पृष्ठों में विवेचन लिखा और प्राप्त है, उमक अनुमार यह नागपुरीय तपागच्छके विधवाओके कर्नव्य-संबंधी अपने स्वतंत्र विचार देकर रत्नशेम्बर सूरि-द्वारा रचित है। टीकाक मंगला- ६८ पृष्ठोंकी एक पुस्निका अपनी अभय जन ग्रन्थचरणके दृमरे श्लोकमें और मूलग्रंथके अन्तिम मालासे विधवा-कनेव्यके नामसे प्रकाशित की। श्लोककी टीकामें इमका स्पष्ट निर्देश है- अन्य-लेखनके रूपमें मेरी यह सर्वप्रथम रचना
थी। इस तरह विधवाशील-संरक्षणोपाय रचना भी छंदकोषाभिधानस्य सूरिश्रीरत्नशेखरैः। कृतस्य क्रियते टीका बोधनायाल्पमेधसाम् ॥२॥
गुजराती व हिन्दी अनुवाद व विवेचन के साथ
अट्ठाईस-तीस वर्ष पहिले ही प्रकाशित हो चुकी है। टी.. इति पूर्वोक्तप्रकारेण छन्दसा कतिपय- पिगल-चतुरशीति-रूपककी 'अनृप संस्कृत लायब्ररी नामानि कतिचिदभिधानानि सुप्रसिद्धानि जनविदि- व अन्य संग्रहालयों में कई प्रतियाँ प्राप्त है।