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किरण ७]
जैन परम्पराका आदिकाल
स्थापित किये। मर्यादा भंग करने वाले के लिए दण्डकी साधनाके लिए वनकी ओर प्रस्थान कर दिया, प्रात्म-शत्रुओं व्यवस्था की। उस समयसे भारतवर्ष भोगभूमिसे बदल पर विजय प्राप्त करनेके लिए वे वनके एक कोनेमें ध्यानम्थ कर कर्मभूमि बन गया प्रकृतिके वरदान पर जीने वाला खड़े हो गये । क्रोधको जीता, लोभको जीता, मायाको मानव अपने पुरुषार्थ पर जीने लगा। ऋषभदेव सर्वप्रथम जीता। किन्तु अभिमानका अंश मनमें रह गया। वे वैज्ञानिक और समाज-शास्त्री थे। उन्होंने समाजकी सर्व- भगवान् ऋषभदेवके पास नहीं गये । मनमें झिझक थीप्रथम रचना की । भागवतमें आता है कि एक साल वृष्टि जाऊँगा तो छोटे भाइयोंको-जो पहले मुनि हो चुके हैंनहीं हुई, परिणाम स्वरूप लोग भूखे मरने लगे। ऋषभदेव- वन्दना करनी होगी। ने अपनी प्रात्म-शकिसे पानी बरसाया और लोगोंका संकट एक साल तक खडे रहे । शरीर पर बेलें चढ गई। दूर किया । यह घटना भी इस बातको प्रकट करती है कि पक्षियोंने घोंसले बना लिए, किन्तु उन्हें कैवल्य प्राप्त नहीं ऋषभदेवके समय खाद्य वस्तु मोंकी तंगी पा चुकी थी और हुआ । ब्राह्मी और सुन्दरी भी भगवान्व पाम दीक्षित हो उन्होंने उसे दूर किया।
हो चुकी थीं। उन्हें अपने भाईकी अवस्था मालूम पड़ी।
समझानेके लिये वे बाहुबलीक पाय पहुँची और बोलीऋषभदेवके भरत बाहुबली श्रादि सौ पुत्र थे, तथा
'भाई! अहंकार-रूपी हाथीस नीचे उतरी। जब तक हाथी ब्राह्मी और सुन्दरी नामकी दो कन्याएँ । श्रायुके अन्तिम
पर चढ़े रहोगे, कैवल्य प्राप्त नहीं होगा। तुम्हारे मनमें यह भागमें उन्होंने अपना राज्य पुत्रोंमें बांट दिया और स्वयं
अभिमान है कि छोटे भाइयोंकी वन्दना कसं करू? प्रामतपस्वी जीवन अंगीकार कर लिया। उनके साथ और भी
जगतमें न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। सबकी आत्मा बहुत से लोग प्रबजित हुए । किन्तु ऋषभदेवने जो कठोर
अनादि है और अनन्त है। यहां तो यही छोटा है, जो मार्ग अपनाया, उसमें वे ठहर न सके। कठोर तपस्या एवं
श्रान्म-गुणों के विकासमें पीछे है। संसारमें छोटा-बड़ा शरीरआत्म-साधना द्वारा कैवल्य प्राप्त करके ऋषभदेवने दूसरोंको
की अपेक्षा समझा जाता है। आत्म-विकासके साधक शरीरप्रात्म-कल्याणका उपदेश देना प्रारम्भ किया।
को महत्त्व नहीं देते।' इधर भरतके मनमें चक्रवर्ती बननेकी आकांक्षा जगी
बाहुबलीको अपनी भूल मालूम पड़ी। अभिमानका और वह अपने भाइयोंको श्राधीनता स्वीकार करनेके लिए नशा उतर गया। भगवानके पास जानेके लिए कदम उठाने बाध्य करने लगा। उन्हें यह बात अमा प्रनीत हुई। ही वाले थे कि कैवल्य प्राप्त हो गया। समान अधिकारको रक्षाके लिए वे पिताके पास पहुंचे। भात चक्रवतीन काल तक राज्य किया infra अषभदेवने उन्हें त्याग मार्गका उपदेश दिया : परिणाम- श्चर्यका भोग किया। एक बार उसने एक शीशमहल स्वरूप बाहुबलीको छोडकर सबके सब मुनि हो गए और बनानेकी आज्ञा दी। जब महल बनकर तैयार हो गया, तो आत्म-साधनाके पथ पर चल पड़े।
वह राजसी नेपथ्यमें उसे देखनेक लिए गया . महल बड़ा बाहुबलीने भरतका आज्ञाका खुला विरोध किया और मुन्दर बना था। भरत दम्ब देखकर प्रसन्न हो रहा था और युद्धकी तैयारी कर ली। दोनों भाइयों में परस्पर मल्ल-युद्ध- अपने ऐश्वर्य तथा शक्निका गर्व कर रहा था। राजमी वेशका निश्चय हुआ। भरतने मुष्ठि-प्रहार किया। बाहुबली भषामें चमकता हृया सुन्दर शरार दर्पणोंमें प्रतिविम्बित सह गये । फिर बाहुबलीने प्रहारके लिए मुष्टि उठाई। होकर जगमगा रहा था और वह हर्प एवं गर्वमे श्राप लावित उसी समय उनके मनमें आत्म ग्लानि उत्पन्न हो गई। हो रहा था। चलते चलते एक अंगुलीम अंगूठी नीचे गिर राज्यके लोभसे बड़े भाई पर प्रहार करना उचित नहीं पड़ी और अंगलीकी चमक समाप्त हो गई। वह सूनीसी प्रतीत हुमा । क्रोधकी दिशा बदल गई। भाई पर प्रहार मालम पड़ने लगी । भरतक मनमें श्राया--"क्या यह चमक करनेकी अपेक्षा प्रान्म-शत्रुओं पर प्रहार करना उचित
पराई है ? जब तक अंगूठी थी अगुली जगमगा रही थी, समझा । सोचा-'मुझे उमी पर प्रहार करना चाहिए उसके अलग होने ही भही दीखने लगी।' उसने दूसरी जिमने भाई पर प्रहार करनेके लिए प्रेरित किया ।'
अंग्रटी भी उतार दी। वह अंगुली भी निस्तेज हो गई। बाहुबलोने उसी समय मुनिव्रत ले लिया और प्राम- मुकुट उतार दिया, चहरकी शोभा लुप्त हो गई। धीरे