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जैन परम्पराका आदिकाल
(डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, एम० ए०, पी० एच० डी० )
जैनधर्मके अनुसार संसार अनादिकाल से चला आ रहा है। इसे न कभी किसीने रचा और न यह किसी एक तत्त्वसे उत्पन्न हुआ है । प्रारम्भसं ही इसमें अनन्त जीव हैं । अनन्त पुद्गल परमाणु हैं और उनसे बनी हुई संख्य वस्तुएँ हैं । प्रत्येक वस्तुमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है और किसी रूपमें स्थाधिग्य भी रहता है। नई पर्याय उत्पन्न होती है, पुरानी नष्ट होती है। फिर भी इन्य ज्यों का त्यों रहता है। घड़ा फूटने पर घट हो गई ठीकरेकी पर्याय उत्पन्न हो गई किन्तु स्थाओं में मिट्टी ज्योंका त्यों रही। प्रत्येक व्यय और औम्पसे युत्र है। जैनदर्शनका यह हे तीर्थकर अपने मुख्य शिष्य गणधरोंको इसीका उपदेश देते हैं ।
पर्याय नष्ट दोनों अ
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वस्तु उत्पाद
मूल सिद्धांत सबसे पहले
जिस प्रकार संसार अनादि है, उसी प्रकार अनन्त भी है ऐसा कोई समय नहीं आया, जब इसका अन्त हो जायगा । इस प्रकार अनादि और अनन्त होने पर भी इसमें विकास और द्वास होते रहते हैं। जब कभी उन्धान का युग आता है, मनुष्योंकी शारीरिक, मानसिक तथा श्राध्यात्मिक शक्तियां उत्तरोत्तर विकसित होती हैं। जब कभी पतनका समय आता है, उनमें उत्तरोत्तर ह्रास होता है। उत्थान और पतनके इस क्रमको बारह आरे वाले एक चक्र से उपमा दी गई है। बारहमेंस छह धारे विकासको प्रगट करते हैं और यह दासको विकास वाले चारोंको उत्पि काल तथा हास वाले धारोंको अवसर्पिणीकाल कहा जाता जाता है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनोंको मिलाकर एक कालचक्र होता है । इस प्रकारके श्रनन्तकाल तक इनका प्रवाह चलता रहेगा। इस समय अवसर्पिणीकाल है । इसमें मानवीय शक्यिोंका उत्तरोत्तर डास होता जा रहा है।
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सबसे पहला श्रारा सुषमा सुपुमा था । उसमें लोग अत्यन्त सुखी तथा सरल थे। उनकी सभी आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों पूर्ण हो जाती थी न किसीको किसीका अधिकार छीनने की इच्छा होती थी, न दूसरे पर प्रभुत्व जमाने की। दूसरा श्रारा सुपुमा था। उसमें भी लोग सुखी तथा मह थे। तीसरा सुषमादुपमा था उसके पहले दो भागोंमें लोग सुखी थे किन्तु तीसरे में कुछ संगी अनुभव होने लगी । वृक्षोंमें फल देनेकी शक्ति कम हो गई। परिणाम
स्वरूप बांट कर खानेकी आवश्यकता हुई। अधिक उत्पादनके लिए स्वयं परिश्रम करना अनिवार्य हो गया। तीसरे भारेके प्रथम दो भागों तक समाजकी रचना नहीं हुई थी। उस समय न कोई राजा था, न प्रजा । सबके सब स्वतन्त्र होकर विचरते थे। पारिवारिक जीवनके विषयमें कहा जाता है कि सह-जन्मा भाई-बहिन ही बड़े होकर पति-पत्नी बन जाते थे इसीको युगल-धर्म कहा जाता है। हृदयके सरल । तथा निष्पाप होनेके कारण वे सबके सब मर कर स्वर्ग प्राप्त करते थे। तीसर मारेके अन्तिम तृतीयांश में जब जीवन-सामग्री कम पड़ने लगी, तो व्यवस्थाकी अावश्यकता हुई और उसी समय क्रमशः पन्द्रह कुलकर हुए। वैदिक परम्परामै जो स्थान मनुका है, जैन परम्परामैं वही कुलकरोंका है। इन कुलकरोंके समय क्रमशः तीन प्रकारकी दण्डव्यवस्था बताई गई है। प्रथम पांच कुलकरोंके समय 'हाकार' की व्यवस्था थी, अर्थात् कोई अनुचित कार्य करता तो 'हा' कह कर उस पर असन्तोष प्रगट किया जाता था और इतने मात्र अपराधी सुधर जाता था। दूसरे पांच कुलकरोंके समय 'माकार' की व्यवस्था थी, अर्थात् 'मा' कह कर भविष्यमें उस कामको न करनेके लिए कहा जाता था । अन्तिम पांच कुलकरोंके समय 'धिक्कार' की व्यवस्था हुई, अर्थात् 'चि' कह कर अपराधीको फटकारा जाता जाता था। इस प्रकार दण्ड विधानमें उत्तरोत्तर उग्रता घावी गई।
ऋषभदेव
पन्द्रहवें कुलकर नाभि थे। उनके समय तक युगल धर्म प्रचलित था। नामि तथा उनकी रानी मरुदेवीका वर्णन भागवतमें भी आता है। उनके पुत्र ऋषभदेव हुए। जम्बूद्वीपपत्ती में आया है कि ऋषभदेव इस अवसर्पिणीकालके प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती हुए उनके समय युगल धर्म विपिन हो गया। वृक्षोंके उपहार कम पद गये। तंगीके कारण लोग चापसमें झगड़ने लगे तभी ऋषभदेवने ममाज-व्यवस्थाकी नींव डाली। लोगोंको तभी खेती करना, भाग जलाना, भोजन पकाना, वर्तन बनाना, आदि जीवनके लिए आवश्यक उद्योग-धन्धोंकी शिक्षा दी, विवाह-संस्कारकी नीच डाली, भिन्न-भिन्न कार्योंके लिए अलग-अलग वर्ग