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पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान और लय
(लेखक-५० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री) सर्व साधारण लोग पूजा, जप आदिको ईश्वर-आराधना- हमें स्थापना-पूजा और द्वन्य-पूजासे प्रयोजन है। क्योंकि के समान प्रकार समझ कर उनके फलको भी एकसा ही भावपूजामें तो स्तोत्र, जप आदि सभीका समावेश हो जाता समझते हैं। कोई विचारक पूजाको श्रेष्ठ समझता है, तो है। हमें यहां वर्तमानमें प्रचलित पद्धति वाली पूजा ही कोई जप, ध्यान आदिको । पर शास्त्रीय दृष्टिसे जब हम विवक्षित है और जन-साधारण भी पूजा-अर्चासे स्थापना इन पाँचोंके म्वरूपका विचार करते हैं तो हमें उनके स्वरूपमें पूजा या द्रव्यपूजाका ही अर्थ ग्रहण करते हैं। ही नहीं, फल में भी महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है। रम्तोत्र -वचनोंके द्वारा गुणोंकी प्रशंसा करनेको प्राचार्योंने इनके फलको उत्तरोत्तर कोटि-गुणित बतलाया स्तुति कहते हैं । जैसे अरहंतदेवके लिए कहना-तुम धीतहै। जैसा कि इस अन्यन्त प्रसिद्ध श्लोकसे सिद्ध है- राग विज्ञानसे भर-पूर हो, मोहरूप अन्धकारके नाश करनेके पूजा' कोटिममं स्तोत्रं स्तोत्र-कोटिसमो जपः । लिये सूर्य के समान हो, आदि। इसो प्रकारकी अनेक जप-कोटिममं ध्यानं ध्यान-कोटिसमो लयः॥ स्तुतियोंके समुदायको स्तोत्र कहते हैं । संस्कृत, प्राकृत,
अर्थात्-क कोटिवार पूजा करनेका जो फल है. अपन'श, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला, कनदी, तमिल उतना फन एक वार स्तोत्र-पाठ करने में है। कोटि वार आदि भाषाओं में स्व या पर-निर्मित गद्य या पद्य रचनाके स्तोत्र-पढनेसे जो फल होता है, उतना फल एक वार जप द्वारा पूज्य पुरुषोंकी प्रशंसामें जो बचन प्रकट किये जाने हैं, करने में होता है। इसी प्रकार कोटि जपके समान एक वारके उन्हें स्तोत्र कहते हैं। ध्यानका फल और कोटि ध्यानके समान एक वारके लयका ३जप-देवता-वाचक मंत्र प्रादिके अन्तर्जल्परूपसे वारफल जानना चाहिए।
वार उच्चारण करनेको जप कहते हैं। परमेष्ठी-वाचक विभिन्न वाचक-वृन्द शायद उक्र फलको बांच कर चौंकेंगे और मंत्रोंका किसी नियत परिमाणमें स्मरण करना जप कहेंगे कि ध्यान और लयका फल तो उत्तरोत्तर कोटि- कहलाता है। गुणित हो सकता है, पर पूजा, स्तोत्र और जपका उत्तरोत्तर ४ ध्यान-किमी ध्येय वस्तुका मन ही मन चिन्तन कोटि-गुणत फल कैसे संभव है। उनके समाधानार्थ यहां करना ध्यान कहलाता है। ध्यान शब्दका यह यौगिक अर्थ उनके स्वरूप पर कुछ प्रकाश डाला जाता है:
है। सर्व प्रकारके संकल्प-विकल्पोंका अभाव होना: चिन्ताका १पूजा-पूज्य पुरुषोंके सम्मुख जाने पर अथवा उनके निरोध होना यह ध्यान शब्दका रूढ अर्थ है, जो वस्तुतः अभावमें उनकी प्रतिकृतियों के सम्मुम्ब जाने पर सेवा-भकि लय या ममाधिके अर्थको प्रकट करता है। करना, सन्कार करना, उनकी प्रदक्षिणा करना, नमस्कार
५ लय-एकरूपना, तल्लीनता या साम्य अवस्थाका करना, उनके गुण-गान करना और घरसे लाई हुई भेंटको
नाम लय है। साधक किसी ध्येय विशेषका चिन्तवन करता उन्हें समर्पण करना पूजा कहलाती है। वर्तमानमें विभिन्न
हा जब उसमें तन्मय हो जाता है, उसके भीतर सर्व सम्प्रदायोंके भीतर जो हम पूज्य पुरुषोंकी उपासना-बारा- प्रकारके संकल्प विकल्पों और चिन्ताओंका अभाव हो जाता धनाके विभिन्न प्रकारके रूप देखते हैं, वे सब पूजाके ही है और जब परम समाधिरूप निर्विकल्प दशा प्रकट होती अन्तर्गत जानना चाहिये । जनाचार्योने पूजाके भेद-प्रभेदोंका तब उसे लय कहते हैं। बहुत ही उत्तम रीतिसं सांगोपांग वर्णन किया है। प्रकृतमें
पूजा, स्तोत्र आदिके उक्त स्वरूपका मूक्ष्म दृष्टिसे अव१ पूजा-(पूश्रा) सेवा, सन्कार (प्राकृत शब्दमहार्णव) लोकन करने और गम्भीरनामे विचारने पर यह अनुभव २ स्त्रोत्र-थोत्त) गुण-कीर्तन (,) हुए विना न रहेगा कि ऊपर जो इनका उत्तरोत्तर कोटि३ जप-(जव) पुनः पुनः मत्रोच्चारण (,) गुणित फल बतलाया गया है, वह वस्तुतः ठीक ही जान ४ ध्यान-(झाण, उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरण (,) पड़ता है। इसका कारण यह है कि पूजामें बाह्य वस्तुओंका १ लय-मनकी साम्यावस्था, तल्लीनता (,) पालम्बन और पूजा करने वाले व्यकिके हस्तादि अंगोंका