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अनेकान्त
[वर्ष १४ चालाकीसे विमा रोक-टोक शिश्न अर्थात् नग्न देवोंको मार- भगवद्गीताके स्वामी कृष्णके समकालीन थे, ईसासे १.. कर शतद्वारों वाले दुर्गकी निधि पर कब्जा कर लिया। श्री वर्ष पूर्व ठहरता है। मेरठके समीप पाडवोंकी कर्मभूमि मेकडोनल अपनी पुस्तक Vedic Mythology वैदिक हस्तिनापुर में हुई हालकी खुदाईसे उसका वसतिकाल पाख्यान) के पृष्ठ १५५ पर कहते हैं कि शिश्नदेवकी पूजा ११०० से ८०० वर्ष ईसा पूर्व निर्धारित हुआ है। हमें ऋग्वेदके विरुद्ध है । इन्द्रसे प्रार्थना की गई है कि वह शिश्न- अभी शेष २१ तीर्थकरोंकी कालगणना करना बाकी है जो देवोंको यज्ञोंके पास फटकने न दे। इन्द्र के सम्बन्धमें कहा पूर्वापरक्रमसे नेमिनाथसे पहले हुए हैं। यदि हम इसी गया है कि उसने जब चोरीस शतद्वारोंवाले दुर्गमें निधि- अनुपातसे प्रत्येक तीर्थकरकी कालगणना पीछे पीछे करते कोषोंको देखा तब उसने शिश्नदेवोंका वध कर दिया। चले जावें तो हमें जान पड़ेगा कि आदि तीर्थकर वृषभदेव
ये दोनों ऋचाएं हमारे सामने इस सचाईको व्यक्त कर ईसापूर्वकी तीसरी सहस्राब्दीके अन्तिम चरणमें हुए हैं। देती हैं कि हडप्पावाली नग्नमूर्तिकामें एक परिपल्लवित जैन हड़प्पाको उक्त मूर्तिकाका काल विशेषज्ञों द्वारा २४... तीर्थकरको उसकी उस विशिष्ट कायोत्सर्ग मुद्रामें देख रहे २००० ईस्वी पूर्व निश्चित किया गया है। जैनधर्मके हैं जो अगले युगोंमें श्रवणबेलगोल, कार्कल, वेगूर आदि आदि प्रवर्तक आदिनाथका अपर नाम वृषभ होना बड़ा ही स्थानों में बनी जैन तीर्थकरों अथवा सिद्धोंकी वृहत्काय महत्वपूर्ण है। चूकि ऋग्वेदके सूत्रोंमें पुनः पुनः यह बात मूर्तियों में श्रमरताको प्राप्त हो गई हैं। इस स्थल पर कोई दोहराई गई है कि यह वृषभ हीथा जिसने महादेवके श्रावास हैरानीसे पूछ सकता है कि क्या अगले युगों जैमी जैन मूर्ति- आदि अनेक महान् सत्योंकी कल्पके प्रादिमें घोषणा की थी। कलाकी कायोत्सर्गमुद्रामोहनजोदड़ो व हड़प्पावाले तीन सह- विधाबद्धो वृषभो रोरवीति माग्दी ईसापूर्व प्राचीनकालमें उदयमें आसकती थी? महो देवो मयाना विवेश ॥ऋग ४-५८-३. निःसन्देह पूर्ण नग्नता और समस्त भौतिक चेतना प्रान्त
यह बात कि आदिनाथ अपर नाम वृषभदेवने वैदिक रिकम्युत्सर्ग जो जैनधर्मके मौलिक सिद्धान्त अहिंसाकी सिद्धिके यज्ञों तथा पशुहत्या के विरोधमें एक नये धर्मपन्थकी स्थापना लिये आवश्यक है, इस ही कायोत्सर्ग मदाकी ओर लेजाते की,जैनधर्मकी प्रवर्तनामें एक बहुत बड़ी घटना है। उत्तरहैं। यह वही मुद्रा है जो उपरोक हड़प्पाकी मूर्तिकामें ® लेखक महोदयकी उन धारणा जैन तथा जैनेतर किसी दिखाई पड़ती है। इस प्रकार प्राचीनतम कालसे लेकर आज भी भारतीय अनुश्र तिसे मेल नहीं खाती । भ. प्रादिनाथ तक इस आदर्शवादकी एक अट श्रृंखला और एकता बनी (ऋषभदेव) इस कल्पकालके श्रादि धर्म-प्रवर्तक हैं। जिस हुई है। इस मूर्तिकामें एक भी ऐसी शैल्पिक विशेषता नहीं युगमें इनका आविर्भाव हुमा, वह समस्त हिन्दू साहित्यमें है जो हमारी उक्त धारणाको संदिग्ध बना सके, या हमें सतयुग व कृतयुगके नामसे प्रसिद्ध है। चूंकि इस युगमें पथभ्रष्ट कर सके। इसके अतिरिक्र इस मूर्तिकाकी नग्न मुद्रा सत अर्थात मोक्षमार्ग और कृत अर्थात् कर्मफलवादकी वेदोक महादेव, रुद्र, पशुपतिकी उस अर्ध्वरेतस मुद्रासे जो प्रधानता थी और यह तप, त्याग, अहिंसाका युग था। काफी मोहनजोदडोकी मुहर पर अंकित है, बिलकुल भिन्न है। काल बीतने पर जब भगवान्की आध्यात्मिक वाणी, अल(दखें Cambridge History, of 1953 Plate कारिक शैली और गूढ रहस्यमयी वचनावलीके वास्तविक XXIII)
अर्थको भुलाकर अज्ञानी और दीक्षित जन उनके शब्दार्थचौबीस तीर्थकरोंका कालक्रम तथा पूर्वापरक्रम हड़प्पाकी को ही वास्तविक अर्थ समझने लगे और उस शब्दार्थको मूर्तिकाका काल-निर्णय करनेमें तनिक भी बाधक नहीं है। होश्रुति-सत्य मान कर व्यवहार करने लगे, तो दार्शनिक वर्तमान कल्पकी तीर्थकर-तालिका २४ तीर्थकर शामिल मान्यतामों और धार्मिक परम्परामोंमें विपरीतताका उदय हैं। इनमेंसे अन्तिम तीर्थंकर महावीर, भगवान् बुद्धके हुमा । पशु अर्थात् पाशविक वृत्तियों के बन्धन, संयम व समकालीन थे। २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ महावीरसे ... हनन द्वारा जिस धर्म-मार्गकी देशना दी गई थी, वह से अधिक वर्ष पूर्व हुए हैं। और २२वें तीर्थकर नेमिनाथ पशुवलिमें प्रवृत्त हो गया। इस धर्ममूढ़ता पर खेद प्रकट महाभारत प्रसिद्ध पाण्डवोंके मित्र भगवान् कृष्णके चचेरे करते हुए अथर्ववेद में कहा गया हैभाई थे। मोटे ढंगसे गणना करने परभी नेमिनाथका काल जो मुग्धा देवा उत शुना यजन्तोत गोरङ्ग पुग्धा यजन्तः