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(पेज १७२ का शेष) नाम साधारू है। इन सब बातोंका विवरण मैंने 'वीरवाणी' हैं वहाँके भण्डारों की भी अभी छानबीन नहीं हुई। जितनी वर्ष १ अंक 1.-११ में प्रकाशित अपने लेखमें उसी समय भी रचनामों की जानकारी प्रकाशमें पाई है उन रचनामोंका प्रकट कर दिया था। अब अन्य प्राप्त प्रतियोंसे रायररछका अध्ययन भी अभी ठीकसे नहीं हो पाया। नामके लिये तो पहला अक्षर रा न होकर वास्तवमें 'ए' था, अतः नगरका कुछ व्यकियोंने हिन्दी जैन साहित्य पर थीसिस भी लिखी नाम परछ हो सकता है।
हैं पर अप्रकाशित रचनाओंका अध्ययन उन्होंने शायद हिन्दी जैन-साहित्यकी शोधका काम यद्यपि इधर कुछ ही किया हो और अभी तक हिन्दी जैन साहित्य प्रकाशित वर्षोमें हुआ है और हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन जैसे तो बहुत कम हुआ है अत: उनका लेखन अपूर्ण रहेगा ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं पर वह उस साहित्यकी विशालता- ही। अब हिन्दी साहित्यके नये इतिहास प्रन्थ तैयार हो को देखते हुए बहुत ही साधारण प्रगति समझिए। रहे हैं श्रतः उनमें हिन्दी जैन साहित्यको समुचित स्थान वास्तवमें अभी तक हिन्दी जैन साहिन्यकी जितनी जामकारी के लिए हमें अपने साहित्यकी शोध और अध्ययन प्रकाशमें पाई है वह बहुत कम ही है क्योंकि बहुतसे शीघ्रातिशीघ्र और अच्छी तरहसे करना नितान्त पुस्तक-भण्डार अभी तक अज्ञात अवस्थामें पड़े हैं । अागरा आवश्यक है। जैसे हिन्दीके प्रधान क्षेत्र जहां अनेकों जैन सुकवि हो गए
साहित्य-परिचय और समालोचन
जेनदर्शन-लेग्यक प्रो. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, सुन्दर पुस्तक दसरी नहीं लिखी गई। इसके लिये लेखक प्रकाशक गणेशवर्णी जैनग्रन्थमाला, काशी। पृष्ठसंग्ख्या ७८४, महानुभाव धन्यवादई हैं । इसका प्राकथन डा. मंगलदेवजी माइज २०४३०१६ पेजी । मृल्य जिल्द प्रनिका ) म. शाम्बी, एम. ए. डी. लिटने लिखा है पुस्तकको भाषा और
प्रानुन ग्रन्थका विषय उपके नापस म्पष्ट है। इसमें ली परिमार्जित है। और उत्तर प्रदेशकी सरकार द्वारा जैन दर्शनका विवेचन किया गया है इस पुस्तकके लेखक परस्त है। हां, सामान्यावलोकनमें अनेकान्त स्थापनका प्रो. महेन्द्रकुमारजी न्यापाचार्य एम. ए. है, जिन्होंने अनेक विचार करते हुए 'जन परम्पगमें युगप्रधान रामी समन्त जनदार्शनिक ग्रन्यांका सम्पादन किया है। और जिनकी भद्र और न्यापावतारी मिसनका उदय हश्रा।" हम महत्वपूर्ण प्रस्तावनाएँ उनके योग्य विचारक विद्वान होने वाक्य में समन्तभद्र के बाद न्यायावतारी सिद्धसेनका उल्लेख की स्पष्ट मूवना करती हैं। श्रापन दार्शनिक ग्रन्योंका उन्हें सन्मतिसूत्रका कर्ता मानकर किया गया है, जो ठीक तुलनात्मक अध्ययन किया है । यह ग्रन्थ १२ अध्यायोंमें
नहीं हैं, क्योंकि मन्मनिके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर विद्वान् विभाजित है। पृष्ठभूमि और मामान्यावलोकन, विषय
थे और न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बर, सन्मतिके कर्ता प्रवेश, जैनदर्शनको देन, लोक व्यवस्था, पदार्थस्वरूप, द्रव्य.
न्यायावतार कलि कमसे कम दो सौ वर्ष पूर्ववर्ती है।
यद्यपि इस बातको अन्तिम दार्शनिक माहिन्यकी सूची देने विवेचन, सप्ततत्व निरूपण प्रमाण-मीमांसा, नयविचार, स्याद्वाद और सप्तभंगी, जनदर्शन और विश्वशान्ति और
समय संशोधन कर दिया गया है । तथापि मूललेम्व
अपने उसी रूपमें सुरक्षित हैं । गुणधराचार्यका समय भी जैन-दार्शनिक साहिन्य। इनमें प्रत्येक अधिकार-विषयक
ऐतिहासिक दृष्टिसे चिन्तनीय है। इसी तरह अनेक स्थानों पदार्थका चिन्तन करते हुये विवेचना की गई है। और
पर पूर्वाचार्योक वाक्योंको अनुवादादिक रूपमें अपनाया है. प्रमाणकी मीमांसा, करते हुये भारतीय दर्शनोंकी आलो.
अच्छा होता यदि वहां पर फुटनोट अादिमें उनके चना भी की गई है, साथ ही तुलनात्मक दृष्टिसे जो विवेचन
नामादिका उल्लेख भी कर दिया जाता । इमसे कथन तथा किया गया है वह महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं, किन्तु ।
महत्वपूर्ण है। इतना ही नहा, किन्तु विवंचनका मूल्य और भी अधिक बढ़ जाता। यह सब कुछ उनकी आलोचना करते हुए भी जो समन्वयामक दृष्टिकोण ने भी प्रस्तत पुस्तक बहत उपयोगी है। ऐसे उपयोगी उपस्थित किया गया है, उससे अन्यकी महता पर और भी प्रथके प्रकाशन के लिये गणेशवर्णी प्रन्थमाला और उसके प्रकाश पड़ता है । अद्यावधि जैनदर्शन पर हिन्दीमें इतनी संचालक महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं। -परमानन्द जैम