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किरण ६]
हडप्पा और जैनधर्म
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अर्थात्-देवताओंमें ब्रह्मा, कवियों में नेता, विप्रोंमें स्वर्गीय मान्माओंसे उन पवित्र मन्त्रीका लाभ करते है। ऋषि, पशुओं में भैंसा, पक्षियोंमें बाज, शस्त्रों में कुल्हाड़ा, जिनके द्वारा वे प्राधि-व्याधियोंकी रोक-थाम करते है और सोम पवित्र (छलनी) में से गाता हुया जाता है। रोगियोंकी चिकित्सा करते हैं । सुन देव (शुन अथवा शिश्न (२) विधा बद्धो वृषभो रोरवीति
देव) संभवतः वे तीर्थकर व तीर्थकर श्रथा उनके अनुयायी महोदेवो मानाविवेश ॥ . ५८३ थे जिन्होंने अहिंसा-मन्देशके लिए सुविख्यात जैन धर्मके अर्थात्--मन, वचन, काय तीनों योगोंसे संवत सिद्धान्तोंको प्रकाशित किया। वृषभदेवने घोषणा की कि महादेव मयों में प्रावास करता है। यूग्रनच्चांगके यात्रावृत्तान्त अफगानिस्तान तकमें जैनधर्मके (३) रुद्रः पशूमामधिपतिः।।
प्रसारकी साक्षी देते हैं । बुद्ध भगवानकी जीवनचर्याक अर्थात्--रुद्र पशुओंका अधिपति अर्थात् अधिनायक अध्ययनसे पता लगता है कि उनके विरोधी छह महान् व प्रेरक है। मोहनजोदड़ो वाली मुहरके उपरोक ऋग्वेदीय तीथिक थे । पूर्णकश्यप, अजितकेश, गोशाल, कात्यायन, विवरण के प्रकाशमें इस नग्न मूर्तिकाकी ऋग्वेद के हवालेसे निग्रंथ नाथपुन और संजय । उक्त तालिकामै गोशाल भाजीपक पहचान करना आसान होगा।
पन्धका प्रवर्तक गोशाल है और निर्ग्रन्थ नाथपुत्र २४वें इस निबन्धका लेखक जब मई, जून, जुलाई १९५६ अन्तिम जैन तीर्थकर महावीरका ही नाम है। इस प्रकार के महीनों में एक पुरातात्विक गवेषणापार्टीको अफगानिस्तान यूननच्यांगके दिये हुए 'कुन देव' के वृत्तान्तसे स्पष्ट है वे जा रहा था तो उसे यूअनच्चांग (६००-६१४ ई० मन्) कि वह संभवतः नग्न जैन तीर्थकरकी भोर ही सकेत कर के यात्रावृतान्तोंकी सचाईको जांच करनेके लिए जा रहा है । तीर्थिक शब्द भी तीर्थकर व तीर्थकरका ही योतक अफगानिस्तान तथा अन्य स्थान-सम्बन्धी विविध वैज्ञानिक है। अफगानिस्तानमें जैन धर्मके प्रसारकी बात निःसन्देह
और मानवीय उपयोगकी बातोंसे भरपूर हैं. अनेक अवसर एक नई खोज है। 'सुन' शब्द संमषत: 'शुन' व 'शिण' प्राप्त हुए। उसने होपिना, गजनी व गजना हजाराव 'शिश्नदेव' का ही रूपान्तर है। जब हम ऋग्वेदके कारको होसलके जो विवरण दिये हैं ये बड़े ही महत्वके हैं। ओर देखते हैं तो हमें पता लगता है कि ऋग्वेद दो सूत्रोंमें वह कहता है कि वहां बहत्से बुद्धसर तोथिक हैं जो सुन शिश्न' शब्द-द्वारा नग्न देवताओंकी ओर संकेत करता है। देवकी पूजा करते हैं। जो कोई उस नग्न देवताकी श्रद्धामे इन सूक्रॉमें शिश्नदेवास अर्थात् नग्नदेवास यज्ञोंकी सुरक्षाके आराधना करते हैं उनकी अभिलाषाएं पूरी हो जाती हैं। लिए इन्द्रका श्राह्वान किया गया है। दूर और निकटवर्ती सभी स्थानोंके जन उनके लिए बहुत (१) न यातव इन्द्र जूजुवु! न बड़ी भकिका प्रदर्शन करते हैं। छोटे और बड़े सभी एक
वन्दना शविष्ठ वेद्याभिः। सरीखे उसका दर्शन पाकर धार्मिक उत्साहसे भर जाने हैं। स शर्धदो विपुणम्य जन्तो मा। वेतीर्थिक अपने मन, वचन और कायका संयम करके
शिश्नदेवा अपिग ऋतं नः । ऋ०७२११५
अर्थात हे इन्द्र ! राक्षम हमें अपनी चालोंसे न मारें। यजुबदक पुरुष सूक्क ३१-१७म कहा गया है कि हमारी प्रजासे हमें अलग न करें। तुम विषम जन्तुको 'तन्मय॑स्य देवत्वमजानम'- अर्थात् उस अादि पुरुष मारनेमें उत्साह-यक होने हो। शिश्वदेव अर्थात् मानदेव वृषभने सबसे पहिले मर्त्य दशामें देवत्वकी प्राप्ति की। हमार यज्ञमें विग्न न डालें। स्वयं देवत्वकी प्राप्ति करके ही उसने घोपणा की थी कि
(२) स वाजं यातापदुप्पदा यन महादेवत्व मयों में ही प्रवास करता है। मांस बाहर
स्वता परिषदत सनिष्यन् । कहीं और देवत्वकी कल्पना करना म्यर्थ है। इन्हीं श्रुतियों- अनवां यच्छतदुरस्य वेदो के आधार पर ईश० उप• में कहा गया है 'ईशावास्यमिदं
धनत्र छिश्नदेवाँ अभिवर्षसा भूत॥ सर्व यत्किञ्च जगत्यां जगत् ॥ ३॥ अर्थात् जगतमें जितने
. १०.१६.३ कितने भी जीव हैं, वे सब ईश्वरके आवास हैं।
अर्थात्-यह इन्य शुभ मार्गसे युद्ध क्षेत्र में गया, उसने ---अनुवादक स्वर्गके प्रकाशको विजय करनेका प्रवल किया, उसने