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किरण ६]
राजमाता विजयाका वैराग्य
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एक-एक दृष्टिको लेकर अनेक व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकारक अंशतः मही हैं। इसी प्रकार इष्ट-अनिष्ट, प्रिय-अप्रिय, श्राग्रह कर बैठते हैं तो उन सबमें एक संघर्ष छिड़ जाता है। सुख-दुख, सत्-असत् , नित्य-अनिन्य, देव-पुरुषार्थ आदि वे एक दूसरेके विचारोंको समझनेका प्रयन्न नहीं करते। सभी विरोधी प्रतीत होने वाले तत्वोंका भी समन्वय
आखिर दूसरा व्यक्ति अपनेसे भिन्न विचार रखता है और अनेकान्त दृष्टिसे सहजमें ही हो जाता है, फिर भी परस्पर उसे सत्य मानता है तो उसका कुछ न कुछ कारण तो विरोधी प्रतीत होने वाले उन-उन तत्वोंमें विरोधके लिए अवश्य होना चाहिए। जिस प्रकार हम अपने मन्तव्यको कोई स्थान न रहेगा। इसलिए समन्वयके अदभुत मार्गसही समझते हैं, उसी प्रकार हर एक व्यक्रि भी अपने- रूप अनेकान्त दृष्टिको सदा सामने रखकर जीवन में आने अपने मन्तव्यको सही समझता है। पर वास्तवमें दोनों ही वाले प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक, राष्ट्रीय और इसी एकान्तवादी हैं। क्योंकि जिस दृष्टिसे एकका मन्तव्य सही प्रकारकी अन्य सभी समस्यायोंका हल हूँढना चाहिए। है, वह दूसरेकी दृष्टिसे सही नहीं है । अत: यही कहना मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसके द्वारा प्रबलसे प्रबल विरोध ठीक होगा कि अपनी-अपनी दृष्टियोंसे हर एकके मन्तव्य भी परलताम अविरोधमें परिणत किया जा सकता है।
राजमाता विजयाका वैराग्य
(श्री. सुमेरुचन्द्र दिवाकर, शास्त्री, बी० ए० एल-एल बी०) दक्षिण भारतमें बोली जाने वाली तमिल भाषाका तो उन्होंने उस विकट परिस्थिति में अपने वंशकी रक्षाके लिए इतिहास बहत प्राचीन है। उसका साहित्य भी अत्यन्त गर्भिणी महारानी घिजयाको एक मयूराकार विमानमें बिठा प्रौढ़ है उसके श्रेष्ठ पंच महाकाव्योंमें 'जीवकचिन्तामणि' आकाशमें उड़ा दिया और स्वयं काष्ठांगारसे युद्ध करते हुए जैन काव्य अपना लोकोत्तर स्थान रखता है। उसे तमिल
वैराग्य-भावोंसे प्राणोंका परित्याग कर स्वर्गवासी हुए। भाषाकी सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है । (The greatest महारानी विजयाका वायुयान राजधानीकी श्मशानभूमिमें existing Tamil literary monument)
पहुँचा। जहां महारानीने एक देवोपम-सौन्दर्यसे समलंकृत उसमें जीवन्धरकुमारका मनोरम चरित्र अनुपम शैलीमें
तेजस्वी पुत्ररत्नको जन्म दिया । दैवकी शवभुत गतिको जैन कपिने अंकित किया है।
देखो कि राजपुत्रका श्मशानमें जन्म हुभा। शासन-देवता परम आदरणीय विद्वान प्रो. अप्पास्वामी चक्रवर्ती,
___माताकी सहायता करती है। राजधानीके प्रमुख धनी सेठ मद्रामने Main Antiquary' जैन एन्टीक्वेरी, जून गंधाकटके यहां उस राजपुत्रका सम्यक प्रकारसे पालन-पोषण ११५५ में उक्त ग्रन्थके निर्वाण-सम्बन्धी अध्याय पर प्रकाश हुआ। बालकका नाम जीवन्धरकुमार रखा गया। डाला है। यहां उसका कुछ अंश हिन्दी भाषी भाइयोंके
कुमारकी जननी विजयादवी तपस्वियोंके एक पाश्रममें परिज्ञानार्थ दिया जा रहा है।
चली गई और अमानाके उदयको शान्तभावसे सहन करने कथाका सम्बन्ध इस प्रकार ज्ञातव्य है--मोक्षगामी लगी। उस समय विजयादवी स्वयं वैराग्यकी जीती जागती महापुरुष जीवन्धरकुमारके पिता सत्यंधर हेमानन्द देशान्तर्गन प्रतिमा-मी दिग्बनी थी। वह अपना समय अकिंचन महिलाराजपुरीके महाराज थे उनकी विजयारानी अनुपम सुन्दरी थीं। की स्थितिमें व्यतीत कर रही थी । इधर जीवन्धरकुमारका महाराज अपनी महारानी विजयादेवीमें अन्यन्त श्रापक होकर रक्षक पुण्य था। अतः वह राजपुत्रकी ही तरह वृद्धिंगत
और अपने मन्त्री काप्ठांगारको राज्यभार सौंपकर विषय- हा । कुछ कालके याद तरुणावस्थामें समुचित सामग्रीको भोगोंमें नल्लीन हो गये थे। काष्ठांगारके मनमें राजाके प्राप्त कर जीवन्धरकुमारने पापी काष्ठांगारको मारकर अपने प्रति विद्रोह के विचार उत्पन्न हुए। उसने राजा बननेकी पिताका राज्यामन प्राप्त कर लिया। लालसासे मत्यधर महाराजके संहारका जाल रचा।
राज्याधीन होकर जीवन्धर मांसारिक सुग्वोंका उपभोग जब सन्थन्धर महाराजको इस पढ्यन्त्रका पना लगा, करने लगे। उनकी गुणवती और रूपवतो पाठ रानियां थीं।