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वोद-सेवा-मन्दिर दिल्लोकी पैसा-फण्ड-गोलक मन्दिरको भेजते रहनेको कृपा करें। और मन्दिरोंकी गोलक-व्यवस्था मन्दिरोंके प्रवन्धकोंके सुपुर्द रहे। गोलकोंकी सप्लाई वीर-सेवामन्दिर करे । जिस गोलकसे जितना पैसा वपके अन्तमें प्राप्तहो, प्रायः उतने ही मूल्यका नया उपयोगी जैन-साहित्य प्रत्येक घरके स्वामी तथा मन्दिरके व्यवस्थापकके पास वीर-सेवामन्दिरकी ओरसे विना किसी मल्यके फ्री भेजा जाय। ऐसा होने पर अधिकसे-अधिक जैन-साहित्यके प्रचारकी व्यवस्था हो सकेगी, जिसकी आज बहुत बड़ी जरूरत है, और उसके द्वारा जैन सिद्धान्तोंके मर्म, महत्व, व्यवहार में आने-लानेकी योग्यता-उपयोगिता आदिको लोक-हृदय पर अंकित किया जा सकेगा। साथ ही, जिनवाणीके अंग-स्वरूप महत्वके प्राचीन ग्रन्थों तथा अन्य समृद्ध साहित्यकी खोज हो सकेगी, विविध भाषाओं में उनके अनुवाद तैयोर किये जासकेंगे और जैनतत्त्वोंका विवेचन ऐसी सरल तथा सुन्दर भाषामें प्रस्तुत किया जा सकेगा जो लोक-हृदयको अपील करे। और इस तरह वीरसेवामन्दिर लोकहितकी साधनामें बहुत कुछ सहायक हो सकेगा, उसे लोकका समर्थन प्राप्त होगा और वह अपने भविष्यको उत्तरोत्तर उज्ज्वल बनाकर स्थायित्व प्राप्त कर सकेगा।
आर्थिक समस्याको हल करने और सारी जैन जनताका सहयोग प्राप्त करने के उपाय-स्वरूप अपनी इस गोलक-योजनाको जब मैंने अजमेर, केकड़ी, व्यावर, सहारनपुर, दिल्ली और कलकत्ता आदि स्थानोंके कतिपय सज्जनोंके सामने रक्खा तो उन सबने इसे पसन्द किया। तदनुसार वीरसेवामन्दिरकी कार्यकारिणी समितिमें इसका प्रस्ताव रक्खा गया और वह ३ जनवरी सन् १६५७ को सर्वसम्मतिसे पास हो गया।
अब इस गालक-योजनाको कार्य में परिणत करने और सफल बनानेके लिये सारे जैनसमाजका सहयोग वांछनीय है। नगर-नगर तथा ग्राम-ग्रामसे दो एक परोपकारी एवं उत्साही सज्जन यदि सामने आए और घर-घरमें गोलकांकी स्थापनाका भार अपने ऊपर लेवें तो यह कार्य सहजमें ही साध्य हो सकेगा। वीर-सेवा-मन्दिर मांगके अनुसार उन्हें गोलकें मप्लाई करेगा। आजकलकी दुनिया में एक पैसेका मूल्य बहुत कम है और वह आगे और भी कम होने वाला है, और इसलिये घर पीछे एक पैसा प्रतिदिन साहित्य-सेवाके लिये दानमें निकालना किसीके भी लिये भाररूप नहीं हो सकता-खास कर उन गृहस्थोंके लिये जिनका दान करना नित्यका आवश्यक कर्तव्य है। फिरभी अर्थशास्त्रकी दृष्टिसे बू'दसे सर भरे' और 'कन कन जोड़े मन जुड़े' की नीतिके अनुसार इस पैसेका बड़ा मृल्य है। जैनियोंकी संख्या २० लाखसे ऊपर है, सामान्यतः ४ व्यक्तियों के पीछे एक घरकी कल्पना की जाय तो जैनियोंके पाँच लाख घर बैठते हैं। इनमेंसे एक लाख घरों में भी यदि हम गोलकांकी स्थापना कर सकें, और घर पीछे पाँच रुपये वापिककी भी आय मानले तो वीर-सेवा-मन्दिरको प्रतिवर्ष पाँच-लाखकी आय हो सकती है। इस आयसे वीर-सेवा-मन्दिर कुछ वर्षों में ही वह कार्य करने में समर्थ हो सकेगा जिससे घर-घर, देश-देश और विदेशों में भी जैन-धर्म और वीर-शामनकी चर्चा फेल जाय और अधिकांश जनता अपने हितको समझने और उसकी साधनामें अग्रसर हो सके।
वीर-सेवा-मन्दिरनं आमतौर पर पर्वादिके अवसरों पर अपनी कोई अपील आजतक नहीं निकाली, यह घर-घरमें गोलक-योजना उसकी पहली अपील है। आशा है कि समाजकी ओरसे इसका ऐसा सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त होगा जिससे वीर-सेवा-मन्दिर अपनी जिनशासन और लोक-सेवाकी भावनाओंको शीघ्र ही पूरा करने में समर्थ हो सके।
निवेदकजुगुलकिशोर मुख्तार संस्थापक 'वीरसेवामन्दिर'
२१ दरियागंज, दिल्ली