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वीर-सेवा-मन्दिर दिल्लीकी पैसा-फण्ड-गोलक
कार्यको देखते हुए मातको रक्षाका जो सेवा-
कातक जनसाहित्य और तितका हुई, जहाँ उसका
वीर-सेवामन्दिरकी स्थापना सरसावा जिला सहारनपुरमें अप्रैल सन् १९३६ को हुई, जहाँ उसका विशाल भवन विद्यमान है । वहां इसके द्वारा १६ वर्ष तक जैनसाहित्य और इतिहासके अनुसंधान, उद्धार, प्रचार एवं जैन संस्कृतिको रक्षाका जो सेवा-कार्य हुआ वह किसीसे छिपा नहीं है । उसके इस सेवाकार्यको देखते हुए समाज तथा देशको अधिक लाभ पहुँचानेकी दृष्टि से ही कुछ सज्जनोंकी भावना तथा प्रेरणा उसे दिल्ली जैसे केन्द्र स्थानमें लानेकी हुई । तदनुसार कुछ वर्ष हुए उसका प्रधान कार्यालय खोलकर उसे दिल्ली लाया गया और कलकत्ता आदिके कुछ उदार महानुभावांकी कृपासे उसका निजी तिमजिला भवन भी २१ दरियागंजमें नकर तय्यार होगया है। इस तरह यह संस्था अब भारतकी राजधानी दिल्लीमें आगई है, जहां भारतको और भी अनेक प्रमुख संस्थाएँ पहलेसे आ चुकी हैं और प्रारही हैं। और वह भारत सरकारके नियमानुसार रजिष्टर्ड भी हो चुकी है,
दिल्लीमें आ जानेसे इस संस्थाकी जहां उपयोगिता बढ़ी है, वहां इसकी जिम्मेदारियां भी बहुत बढ़ गई हैं, जिन्हें पूरा करनेके लिये सारे समाजका सहयोग वांछनीय है; तभी समाजकी प्रतिष्ठाको सुरक्षित रखते हुए उसके गौरवके अनुरूप कार्य हो सकेगा।
इसमें सन्देह नहीं कि दिल्ली भारतके दिल (हृदय) स्वरूप मध्यभागमें स्थित भारतकी राजधानी ही नहीं बल्कि अनेकानेक प्रगतियों उन्नत कार्यों और विकास-साधनोंके स्रोत स्वरूप एक प्रमुख केन्द्र.म्थान बन गई है। यहां सब देशोंके राजदूत निवास करते हैं । संसारके विभिन्न भागोंसे नित्यप्रति अनेक प्रतिष्ठित दर्शक और कला-कोविद पर्यटक आते ही रहते हैं। यहां नित्य ही भाँति-भांतिकी प्रदर्शनियों, सभा-सोसाइटियों तथा अन्य सम्मेलनोंके आयोजन भी प्रचुरमात्रामें होते रहते हैं। जिनमें सम्मिलित होने के लिये भारत तथा विदेशोंसे असंख्य जनता आती रहती है। अतएव यहां प्रचार जैसे कार्योको अच्छी प्रगति मिल सकती है और जैनसिद्धान्तोंकी प्रभावना भी लोक-हृदय पर अंकित की जा सकती है।
परन्तु यह सब तभी हो सकता है जब इन कार्योंके पीछे अच्छी आर्थिक योजना हो। समाजमें धनिक प्रायः इनेगिने ही होते हैं और सभी जन उनका सहयोग अपने-अपने कार्योंके लिये चाहते हैं। वे सबको कैसे कबतक और कितना सहयोग प्रदान करें? आखिर धनिक वर्गकी अपनी भी कुछ मर्यादाएँ हैं। अधिकांश धनिकोंकी स्थिति और परिणति भी सदा एक सी नहीं रहती। परिस्थिति आदिके वश जब कभी उनकी सहायता बन्द हो जाती है तो जो संस्थाएँ एकमात्र कुछ धानकों पर ही अवलम्बित रहती हैं वे कुछ दिन चलकर ठप हो जाती हैं और उनके किये कराये पर एक तरहसे पानी फिर जाता है। वही संस्थाएँ सदा हरी भरी और फलती-फूलती दृष्टिगोचर होती हैं जिनकी पीठ पर जन-समूहकी शक्ति काम करती हई देखी जाती है। निःसन्देह जन-समूहमें बहुत बड़ी शक्ति होती है । इधर-उधर विखरी हुई शक्तियां मिलकर जब एक लक्ष्यकी भोर अग्रसर होती हैं तब बहुत बड़ा दुम्साध्य कार्य भी सरलतासे सम्पन्न हो जाता है।
ऐसी स्थितिमें बहुत दिनोंसे मेरे मनमें यह विचार चल रहा था कि दिल्ली में वोरसेवामन्दिरको स्थायी तथा प्रगतिशील और समाजके प्राचीन गौरवके अनुरूप कैसे बनाया जाय और कैसे इसकी आर्थिक समस्याओंको हल किया जाय? अन्तमें यह उपाय सूझ पड़ा कि वीरसेवामन्दिरके लिये एक पैसा-फण्डगोलककी योजना की जाय और उसे जैन-समाजके हर घर और प्रत्येक जैनमन्दिरमें स्थापित किया जाय। घरकी गोलकोंमें घर पीछे कमसे-कम एक पैसा प्रतिदिन डाले जानेकी व्यवस्था हो और उसका भार गृहस्वामी पर ही रक्खा जाय, वही वर्षके अन्तमें गोलकसे पैसे निकाल कर उन्हें दिल्ली वीर-सेवा