Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 208
________________ १७६] अनेकान्त [वर्ष १४ नाहि-नियंब-उरत्थल-पयासणं पुरिस-सेव-करणं च। प्रति अपनी भक्तिका प्रदर्शन किया गया है और इस प्रकारका नर-सुर-तिरिए द? कामकहं पुव्व-रय-सरणं ॥५॥ भाव व्यक्त किया है कि जैसे हंस सरोवरका, भ्रमर पुष्पोंका, सर्वाचय भाभरणं अलन्तयं अंजणं प्रणवरित और सर्प चन्दन-वनका स्मरण करता रहता है उसी प्रकार मेरा मन आपका स्मरण करता रहता है। इत्यादि। हिंडोलय खट्टाई-सयणं तह कूलिभाएउ ॥६॥ इस चिट्ठीमें यद्यपि लिखनेका कोई समय नहीं दिया कोसंभ पट्टटलं तिलवासाईणि अच्छवत्थाणि। है, फिर भी यह अतीव प्राचीनकालकी लिखी हुई जान इगमती जुयलस्स उ परिहरणं उभडो वेसो॥७॥ पड़ती है-खास कर उस समयकी जब कि कागजका खीर कामुहीवण-वंजणमाहारमहियमहणं च। प्रचलन नहीं हुआ था और भोजपत्रों पर चिट्ठी भादि जणसमवाए कोजग-पलोयणं धम्मठाण-बहिं ।।८॥ लिखी जाती थीं। क्योंकि इसमें चिट्ठी अथवा गुण-लेखनके लिए भोजपत्रका ही उल्लेख किया गया है। इस पर-गिहगमणं एगागिणीइणिसि बाहिरम्मि णिस्सरणं " दृष्टिसे इस चिट्ठीका काफी महत्त्व है और अपने इस चमचम-रत-उलगाणं तलियारणं तह परिभोग | । महत्त्वके कारण ही प्रतिलिपि कराकर इसे गुटकेमें सुरक्षित सिंगारत्थं दप्पण-पलोयणं मिदियाइ नहरागो। रखा गया है। पाठकोंकी जानकारीके लिए यहां इसे पूर्णएमाइ विहव-महिलाण विवज्जए सीलरक्खट्ट।। १०॥ रूपमें प्रकाशित किया जाता है: कुसलं अम्हाण वरं अणवरयं तुम्ह गुणलियंतस्स । १४, प्राकृतको पुरानी चिट्ठी पट्ठाविय नियकुसलं जिम अम्हं होइ संतोसो ॥१॥ प्राकृत भाषामें लिखी यह चिटठी भी उन १४ वर्ष 1 सो दिवसो सा राई सो य पएसो गुणाण श्रावासो। पुराने गुटकेले उपलब्ध हुई है। इसको देखनेसे मालूम होता है कि वह किसी अनन्यनिष्ठ शिष्य-द्वारा अपने दूर सुह गुरु तुह मुहकमलं दीसइ जत्थेव सुहजणणं ।।२।। देशस्थ विशिष्ट गुरुको लिखी गई है। चिट्ठी गाथा-छन्दमें किं अब्भुज्जो देसो किं वा मसि नत्थि तिहुयणे सयले । निबद । पोंको लिए हुए है और लेखकादिके नाम-धामसे किं अम्हेहिं न कज्जं जं लेहो न पेसिओ तुम्हे ॥३॥ रहित है । इसकी पहली गाथामें अपनी कुशल-क्षेम सूचित जइ भुजो होइ मही उयहि मसी लहिणी य वणराई। करते हुए अपनेको निरन्तर गुरुके गुणोंमें लीन बतलाया है। लिहइ सुराहिवणाहो तो तुम्ह गुणा ण याति ॥४॥ और गुरूसे अपनी कुशल-क्षेमकी पत्री देनेकी प्रेरणा की है, जह हंसो सरइ सर पडुल कुसुमाई महुयरो सरइ । जिससे अपनेको सन्तोष हो । दूसरी गाथामें गुरुको सम्बोधन पर चंदणवणं च नागो तह अम्ह मणं तुमं सरइ ॥५॥ करके लिखा है कि वह दिवस, वह रात्रि और वह प्रदेश गुणोंका प्रावास है, जहां आमन्द-जनक आपका मुख-कमल दिखाई जह भदवए मासे भमरा समरति अंबकुसुमाइं। पड़ता है। तीसरी गाथामें यह उक्षा की गई है कि क्या तह भयवं मह हिययं सुमरइ तुम्हाण मुहकमलं ॥६॥ पन्नी लिखनेके लिए उस देशमें भोजपत्र नहीं है, मषि जह वच्छ सरह सुरहिं वसंतमासं च कोइला सरइ। (स्याही) नहीं है अथवा भपनेसे कोई काम न रख कर विज्झो सरइ गइंदं तह अम्ह मणं तुमं सरइ ॥७॥ उपेक्षा करदी गई, जिससे पत्री नहीं भेजी गई। चौथी गाथामें यह प्रकट किया गया है कि सारी पृथ्वी भोजपत्र, " जह सो नीलकलाओ पावसकालम्मि पंजरे बूढो । समुद्र स्याही, वनराजि लेखनी बन जाय और लिखने वाले सभरह वणे रमिउं तह अम्ह मणं तुम सरह ।। बृहस्पति हों, तो भी तुम्हारे गुण लिखे नहीं जा सकते जह सरइसीय रामो रुप्पिणि कण्होणलो यदमयंती है। इसके बादकी गाथाओंमें उपमालंकारोंके साथ गुरुके गोरी सरेइ रुई तह अम्ह मणं तुम सरइ॥॥

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