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. अनेकान्त ,
[वर्ष १४
'म्ममें आता है वह अन्तमें दे दिया है। कवि-परिचयवाले १३.१ का उल्लेख अवश्य ही पीछेका है और तो पथके भी दो टुकड़े कर दिये हैं। पहली पंकि.२१वें पथ- स्वयं संदिग्ध है। में और दूसरी-तीसरी पंक्रि ७२४- पद्य और संवतोल्लेख दूसरी समस्या ग्रन्थके रचना-स्थानकी है पर वह तो वाली ७२५ में दे दी है । प्रागरोवइ पाठको वह भी ठीक सभी प्रतियोंमें 'एलछ' या 'एरछ' नगर ही स्पष्ट लिखा है नहीं समझ सका इसलिये उसने उसके स्थान पर 'प्रागरे' अत: आगरा मानना भ्रमपूर्ण हैं। प्रागरोवई लेखककी पाठ दिया है। यह पद्य इस प्रकार है
जातिका उत्पत्ति-स्थान है और वह अग्रोवह ही निश्चित रूप अगरवार आगरै बसै, जिनसेवनको चित उलस॥७२१
से है, भागरा नहीं। कुवरि नाम जननि उर धरचों,
तीसरी समस्या कविके नामकी है। वह बाराबंकी
और उज्जैनको प्रतिसे निश्चित हो जाती है कि कविका नाम साहु मल्ल जिहि घर अवतरयौ
साधारु ही है। यद्यपि उसके उल्लेख वाले दोनों पद्य जयपुरएरछ नयरि वसे तुम नानि,
से प्राप्त दोनों पुरानी प्रतियोंमें नहीं है। फिर भी एक गुनसागर यह कियौ बखानि ॥७२४॥ श्वेताम्बर लेखकने संवत् १६३४ में जिससे प्रतिलिपिकी, वह 'संवत तेरहसै हुए गए, ऊपर अधिक इग्यार भए। प्रति अवश्य ही पुरानी और प्रामाणिक होनी चाहिए और
रीवामें हिन्दी ग्रन्थोंका शोधकार्य अभी रघुनाथ शास्त्री उसका समर्थन बाराबंकी वाली दिगम्बर प्रति भी कर रही ने किया है। उन्होंने इस ग्रन्थका परिचय 'विन्ध्य शिक्षा के है। अतः रचना-काल, रचना-स्थान और कवि इन तीनों मार्च १९५६ अंकमें प्रकाशित किया है। उन्होंने कविका समस्याओंका निर्णय उन विचारणासे हो जाता है। अभी नाम गुणसागर आगरा-निवासी और रचना सम्बत् १३११ इमकी पुरानी व अन्य प्रतियां और भी जहां कहीं में, की बताते हुए कथावस्तु अपने लेखमें दी है।
पता लगाना आवश्यक है। इस सम्बत् १३१२ के उल्लेखवाली एक और प्रति एलछ नगरके सम्बन्धमें अनुसंधान करने पर विदित हुआ 'श्री कस्तूरचन्दजी काशलीवालको मिली है जिसका विवरण कि वह मध्यप्रान्तका एलिचपुर जिला ही है। प्र. शीतलमैंने उनकी नोटबुकमें देखा था। इसकी भाषाको देखते हुए प्रसादजीके मध्यप्रान्तके जैन स्मारकके पृष्ठ ४७ में लिखा है यह संस्करण पीछेसे किसीने तैयार किया है,यह निश्चित है। कि एलिचपुर नगरको राजा एलने बसाया, वह जैन था।..
ऊपर जो पाँच प्रतियों के विवरण दिये गए हैं उनसे इस ग्रन्धका सर्वप्रथम परिचय मुझे श्री कामताप्रसाद जैनके रचनाकालकी समस्या जटिल हो जाती है पहली प्रतिमें 'हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहामासे मिला था।
४११ भादवा सुदी स्वातिनक्षत्र शनिश्चर वारू' दूसरी में उन्होंने दिल्ली-भंडारकी जो सूची अनेकान्त में छपी थी १४११ भादवा पंचमी' इसमें सदी व वदोको स्पष्टता नहीं उसके प्राधारसे इसे गद्य-ग्रन्थ बताया था । दिल्ली-मंडारमें है। तीसरी प्रतिमें सम्बत् ११(१५००) भादवा बदी सं०१६ की इसकी लिम्वी प्रति थी । श्रतः वह गद्य-अन्य पंचमी, चौथीमें १४११ भादवा बदी पंचमी और हो तो बहुत ही महत्वपूर्ण बात है यह सोचकर मैंने श्रीपांचवीं में १३१ भादवा सुदि पंचमीका पाठ मिलता है। पाहाल जैन अग्रवालसे इसकी प्रति प्राप्त की और देखा तो स्वाति नक्षत्र शनिश्चर वार सबमें है। तीन प्रतियों में संवत विदित हुआ कि वह गच-ग्रन्थ नहीं, पद्य-रचना ही है। १४११. एकमें १५१ और अन्यमें १३:१। तिथि दो पर महत्वकी बात यह विदित हुई कि यह रचना सं०१४११ भादवा बदी पंचमी, एक में भादवा सुदी पंचमी, एकमें की है। संवतोल्लेख वाला इतना प्राचीन ग्रन्थ प्रायः अन्य भादवा सुदी। और एकमें भादवा पंचमी बतलाई है। मैंने नहीं मिलता, अतः प्राचीनताके नाते इसका महत्व और भी पुराने संवतोंकी यंत्रीसे जांच करनेका प्रयत्न किया, तो इनमेंसे बढ़ जाता है। चाहे वह गद्य-ग्रन्थ न भी हो। कामताप्रसादकिसी भी संवत् तिथिको स्वतिनक्षत्र शनिश्चर वार नहीं जीने सूचीके प्राधारसे इसका कर्ता रायरच्छ लिखा था, बैठता । मतः उसके आधारसे वास्तविक रचना-कालका निर्णय पर प्रति मँगाने पर यह विदित हुआ कि वह कर्ताका नाम करना सम्भव नहीं हो सका । पर जो प्रतिया मेरे सामने हैं नहीं, परन्तु इस प्रन्थके रचना-स्थानका नाम है। कविका उनको देखते हुए सम्बत् ११ही रचनाकाल सम्भव है।
(शेष टाइटिल पेज ३ पर)