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खान-पानादिका प्रभाव
(श्री० पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री)
अपने देशकी यह बहुत पुरानी कहावत है
पशुओं में एक जबर्दस्त भेद स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मांसजैसा खावे अन, वैसा होवे मन,
भोजी शेर, चीते, बाघ आदि जानवर अन्यन्त क्रू र स्वभावी जैसा पीवे पानी, वैसी बोले वानी।
और एकान्तप्रिय होते हैं, जबकि शाकाहारी गाय, हरिण अर्थात् खाने-पीनेकी वस्तुओंका असर मनुप्यके मन पर श्रादि अत्यन्त शान्त स्वभावी और संघप्रिय होते हैं, वे अपने पड़ा करता है। पर आजकल लोग इन बातोंको दकियानूसी समाजकं साथ ही रहना पसन्द करते हैं। उक्त महाशय बताने लगे हैं और खाने पीनेकी मर्यादा जो हमारे घरोंमें जब शाकाहारी थे. उनमें शाकाहारियों के गुण थे और अब पीढ़ियोंसे चली आ रही थी, उसे नोड़कर स्वच्छन्द श्राहार- मांस-भोजी हो जानेपर उनमें मांस-भोजी जानवरों जैसे दोष विहारी बनते जा रहे हैं। खाने-पीनेकी वस्तुओंका प्रभाव प्रविष्ट होगये। कितना अमिट होता है इसके दिखाने के लिए दो एक घटनाएं एक और भी सच्ची घटना सुनिये--एक सज्जनने नीचे दी जाती हैं
बताया कि वे एक बार पर्युषण पर्वमें षट्-स-विहीन भोजन पंजाबके एक सौम्यमूर्ति क्षत्रिय-बन्धु बचपनसे निरामिष- कर अत्यन्त निर्मल परिणामोंके साथ धर्म साधन कर रहे भोजी थे। वे अत्यन्त मिलनमार और हंसमुख व्यक्रि थे। थे। चूंकि वे वहां अतिथि बनकर गये थे, इसलिये प्रति उन्होंने कभी भी मांस नहीं खाया था औप न उनके घर- दिन नये-नये घर पर भोजन करने जाना पड़ता था। एक वाले ही खाते थे। गत दूसरे महायुद्धके समय वे फौजमें दिन उस रूखे-सूखे भोजनके करने पर भी रातमें उन्हें भर्ती होकर युद्धके मोर्चे पर गये। परिस्थितिवश वहां उन्हें अन्यन्त काम-विकार जागृत हुआ और नींद लगते ही स्वप्नमांस खाना पड़ा। धीरे-धीरे उन्हें मांस खानेका चस्का लग दोष भी हो गया। दूसरे दिन उन्होंने अपने अत्यन्त निजी गया और शराब पीनेकी आदत भी पड़ गई । जब युद्ध मित्रोंसे उस व्यक्तिके आचरण-बावत पूछ-ताछ की, तो बन्द हो गया तो वे लौटकर पर आये। लोग यह देखकर पता लगा कि स्त्री और पुरुष दोनों ही पाचरण-भ्रष्ट हैंदंग रह गये कि उनका स्वभाव एक दम बदल गया है। स्त्री व्यभिचारिणी और पुरुष व्यभिचारी है। उक्त सज्जन जहां वे पहले अल्यन्त मिलनसार और दश श्रादमियों में श्राश्चर्य-चकित हुए कि एक व्यभिचारी मनुष्यके अनसे बैठने वाले थे, वहां अब वे अत्यन्त रूप-स्वभावी हो गये व्यभिचारिणी स्त्री-द्वारा बनाये गये भोजनका कितना प्रभाव थे। बात-बात पर क्रोधित हो लाल-पील हो जाते थे। लोगों एक ब्रह्मचारी मनुष्य पर पड़ता है। से मिलना-जुलना तो एकदम ही नापसन्द हो गया था। आजकल लोग दिन पर दिन शिथिलाचारी होते जाते अब खाना तो वरायनाम रह गया था, रोजाना नई-नई हैं और हर एक आदमीके हाथकी बनी हुई वस्तुको जहां किस्मके मांस खाते और शराबमें शराबोर होकर अपने कमरे कहीं भी बैठकर जिस किसी भी समय पर खाया-पीया में मस्त होकर पड़े रहते थे। एक दिन उनके एक धनिष्ट करते हैं । यही कारण है कि उनका दिन पर दिन नैतिक मित्र जो आजकल दिल्लीके एक कालेजमें प्रोफेसर हैं. उनसे पतन होता जा रहा है। जो वस्तु जितने कुत्सित संस्कारी मिलनेके लिये गये, तो उनकी उक्त दशा देखकर आश्चर्यसे व्यक्तिके द्वारा उपार्जित होगी और जितने हीनाचारी स्तम्भित रह गये। जहां पहले उनका चेहरा अत्यन्त सौम्य व्यक्तिके द्वारा तैयार की जाएगी , उन दोनोंके कुत्सित था और बाल घुघराले थे। वहां अब वे अत्यन्त रौद्र मुख संस्कारोंका प्रभाव उस वस्तु पर अवश्य पड़ेगा । लेकिन दीखने लगे थे और बाल तो सूथरके समान मोटे और खड़े उसके खाने पर उसका अनुभव उसी व्यक्तिको होता है, हो गये थे। उक्त प्रोफेसर साहबको उनकी यह दशा देख- जिसका श्राचार-विचार शुन्छ है और खान-पान भी शुद्ध कर अत्यन्त दुःख हुआ और उनके गर्म मिजाजको देखकर है । जिसका चित्त भात-रौद्र ध्यानसे रहित एवं उनसे कुछ भी कहनेका साहस नहीं हुआ।
धर्मध्यानरूप रहता है। यह एक सत्य घटना है। मांस-भोजी और शाकाहारी खान-पानकी चीजोंके समान वस्त्र और स्थानका भी