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किरण ६]
हडप्पा और जैनधर्म कालीन घटनाओं और आदिनाथके अनुयायी सन्तोंने जो ऐतिहासिक तथ्यका ही उल्लेख कर रहा है कि जैनधर्मका तीर्थकर व सिद्ध नामसे प्रसिद्ध है, उनके द्वारा प्रवर्तित धर्मको मूल उद्देश्य जैसा कि वृषभदेवने समझा और प्रसारित अहिंसाके स्थायी प्राधार पर कायम कर उसे भागे-आगे किया, वैदिक यज्ञोंसे सम्बन्धित पशुहत्याको दूर करना था। चलाया । जो काल और क्षेत्र के साथ-साथ विद्युत् प्रादेष्टनोंके सबकी हो श्रद्धाको अपनी ओर आकर्षित करने और सभी में समान शकि पर शक्ति हासिल करता चला गया। और अपने महान् मन्तग्योंका विश्वास भरनेके लिये प्रादि तीर्थसारे वातावरणको 'अहिंसा परमो धर्मः' के मन्त्रसे श्रोत करने सभी वस्त्रोंका परित्याग कर दिया। इस तरह उसने प्रोत कर दिया।
अपने और अपने अनुयायियोंको कायोत्सर्गसे प्रारम्भ करके वृषभदेव नग्न अवस्थामें रहते थे, यह एक निर्विवाद महान् प्रात्मत्यागके लिये प्रस्तुत किया। यह तथ्य कि उसके लोकमसिद्ध बात है। क्योंकि पूर्ण नग्नता जो प्रात्मविशुद्धिके उत्तराधिकारी अन्य तीर्थकरांने इसी मार्गको अपनाया, लिये एक अनिवार्य आचरण है, जैनधर्मका एक केन्द्रीय जैनियों द्वारा प्रयुक्त होनेवाली भारतीय कलाकी एक मनोज्ञ सिद्धान्त है। यदि ऋग्वेदमें प्रमुख वैदिक देवता इन्द्रको कथा है। इसलिये यह मूर्तिका, जिसका विवरण ऊपर दिया शिश्नदेवों अर्थात् नग्नदेवोंसे वैदिक यज्ञोंकी रक्षार्थ श्राह्वान गया हैं प्राचीनतम जैन संस्कृतिका एक सुन्दर गौरवपूर्ण किया जाता है तो यह स्पष्ट ही है कि ऋग्वेद तत्कालीन एक प्रतीक है। या इमं यज्ञं मनसाचिकेत प्रणो वोचस्तमिहेह ब्रवः भारतीय संस्कृतिके उपयुक ऐतिहासिक क्रमकी बोर
अथर्व ०.५.१. संकेत करते हुए ही मनुस्मृति १.८६. विष्णुपुराण ६.२.१. अर्थात्-मूद विप्र जन इस श्रादि पुरुषकी पूजा बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र ३.४१-१४७. महाभारत-शान्तिपर्व, (पुरुधा) बहुत प्रकारसे (शुना) प्राणियों और (गोरग) अध्याय २३१-२१-२६, अध्याय २३८-१01, अध्याय गौके अंगों द्वारा करते हैं। परन्तु जो ज्ञानी जन इसकी २४५.१४ तथा मुण्डक उपनिषद १.२.१,... आदिक पूजा (मनसा) मानसिक साधना-द्वारा करते हैं। वे ही (नः)
उल्लेखोंसे पाया जाता है कि सतयुगका धर्म तप, त्याग,
को हमें (प्रवोचः) उपदेश करें और वे ही (तम्) उस आदि
शान, ध्यान-प्रधान था । तामें हिंसक यज्ञोंका विधान पुरुष की (इह इह) विभिन बातोंको (बुवः) बतलायें।
हुआ। द्वापर में इसका हास होने लगा और कलियुगमें इनका इस पशुयज्ञ-प्रधान युगको ही भारतीय ऋषियोंने त्रेता युगकी संज्ञा दी है, क्योंकि इस युगमें ही तीन
सर्वथा अभाव हो गया । त्रेता युगमें पूजा-अर्चनार्थ हिंसक
यज्ञोंका विधान पदिक आर्यजनों के कारण हुआ था । परन्तु विधाओं (ऋक, यज, साम,) तथा तीन अग्नियों (भावह
भारतकी अहिसामयी चेतनाने उसे सहन नहीं किया। यह नीय, गार्हपत्य, दाक्षिण्य) का विशेष प्रचार हुआ है।
इसके विरोधमें सक्रिय हो उठी और जब तक उसे अपने इससे अगला युग-जिसमें आध्यात्मिक और याज्ञिक दोनों विचार-धाराओंका सम्मिलन हुा-द्वापरके नामसे प्रसिद्ध
धार्मिक क्षेत्रसे निकाल कर बाहिर नहीं कर दिया, उसे हमा । यही भारतीय-साहित्यमें उपनिषदोंका यग है। शान्ति प्राप्त नहीं हुई। इस मांस्कृतिक संघर्षकी कहानी तदनन्तर जब अनेक राज-विप्लवों तथा विभिन्न दार्शनिक जाननेके लिए अनुवादकका 'अनेकान्त' वर्ष ११ किरण ४-५ परम्पराओं के कारण भारतीय जीवन कलह-क्लेशोंसे पीड़ित में प्रकाशित 'भारतकी अहिंसा संस्कृति' शीर्षक लेख देखना हुआ, तब कलियुगका उदय हुआ।
पर्याप्त होगा।
-अनुवादक साधुको चितिरिव सहिष्णु होना चाहिए (धवला) १. जैसे पृथ्वी अच्छे या बुरे अगर, तगर, चन्दन, कपूर या मल, मूत्र, रुधिरादिके पड़ने पर एक ही समान रहती है। उसी प्रकार साधुको इष्ट-अनिष्ट, लाभ-अलाभ, यश-अपयश, निन्दा-प्रशंसा और सुख-दुखमें समान रहना चाहिए।
२. जैसे पृथ्वी विना किसी शृंगार-बनावटके अपने प्राकृतिक स्वभावमें ही बनी रहती है, वैसे ही साधुको भी विना किसी ठाठ-बाटके स्वाभाविक वेषमें रहना चाहिए।
३. जैसे पृथ्वी, पर्वत, ग्राम, नगरादिको और मनुष्य, पशु, पक्षी आदिको धारण करती हुई नहीं थकती, सी प्रकार साधुको स्वयं श्राम-साधन करते और दूसरोंको धर्मोपदेश देते और सन्मार्ग दिखाते हुए कभी नहीं थकना चाहिए।