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अनेकान्त
[वर्ष १४ वह अपने सामाजिक वातावरण और लोकोत्तर श्रादर्शोसे प्रयुक्र हुए हैं, उत्घात भूमिके विभिन्न स्तरोंकी गहराई सुसज्जित है। यह कला एक दम ऐपी दिव्यताको प्रतीक सम्बन्धी तथ्योंकी सन्तोषजनक शहादत प्राप्त करानेमें है जो बाहरमें अस्त-व्यस्त न हो कर अन्तमुखी शान्तिके अपर्याप्त रहे हैं और उनका यह कथन है कि इन मर्थ प्रयुक्त होने वाली सभी विभूतियों और सुसंयत रचना. मूर्तिकाओंमेंसे एक नर्तककी मूर्तिका हड़प्पाके बा भंडार भारी शक्तियोंसे सम्पन्न है। निस्सन्देह इन तथ्योंका ही थाले स्तरसे मिली और दूसरी उसीके पास-पास वाले हम जैनियोंके उपास्यदेव और तीर्थकरोंमें साक्षात् दर्शन स्थानके लगभग ४ फुट १० इंच नीचे वाले स्तरसे मिली, नते हैं जिनकी महान् मूर्तियां, जैसी कि मसूर देशके बाह्य हस्तक्षेपकी संभावनाका निराकरण नहीं करता । इन अवयवेखगोल, कार्कल, वेणूर आदि स्थानोंमें स्थित हैं, मूर्तिकाओंको उत्तरकालीन कहना भी कठिनाईसे खाली हमारे ध्यानको आकर्षित करती हैं । अपनी समस्त इन्द्रियों- नहीं है। यह संदेह तभी दूर हो सकता है जब अधिक के व्यापारका मन वचन कायको गुप्ति-द्वारा नियन्त्रण किये अन्वेपणों द्वारा इस क्षेत्रके विभिन्न स्तरोंसे प्राप्त वस्तुओंका हुबे, अपनी समस्त विभूतियों और सृष्टिकारक शकियोंका समुचित अभिलेखोंकी सहायतास तुलनात्मक अध्ययन अहिंसाके सुदृढ़ एवं कोमल सूत्रद्वारा वशीकरण किये हुए किया जाये।" और ऋतुओंकी कटुतायोके प्रति अपने कायिक अङ्गोपाङ्गोंका श्री व्हीलरकी अन्तिम टिप्पणीसे यह स्पष्ट है कि इन व्युत्सर्ग किये हुए मैसूर दशके श्रवणबेलगोल स्थित बाहु- मूर्तिकाको उत्तरकालीन कहना इतना ही कठिन है बलीकी महान् मूर्तिके सदश जैन तीर्थकरों और जैन सन्तोंकी जितना कि इन्हें ईसा पूर्वकी तीसरी सहस्राब्दीका न कहना । सभी मूर्तियां अपने पुरातन और निर्ग्रन्थ यथाजात नग्न इस तरह दोनों पक्षोंकी युत्रियां समकक्ष हैं। रूपमें मानव मानवको यह देशना कर रही है कि अहिंसा पानी, अब हम इन मूनिकायों के ((Subjective) ही समस्त मानवी दुःखोंके निवारणका एक मात्र उपाय है। स्वाश्रित और (Objective) पराश्रित महत्त्वकी जांच ये 'महिंसा परमो धर्मः' का साक्षात् पाठ पढ़ा रही हैं। करें। इसके स्वाश्रित महत्वका अध्ययन तो हम पहले ही
हडप्पाकी भूर्तिकाके उपरोक गुणविशिष्ट मुद्रामें होनेके कर चके हैं। यह एक मीधे खड़े हुए नग्न देवताकी प्रतिमा कारण यदि हम उसे जैनतीर्थंकर अथवा ख्याति-प्रात तपो- है जिसके कन्धे पीछेको ढले हुए है और इसके.साफ सुथरे महिमा-युक्त जैन सन्तकी प्रतिमा कहें तो इसमें कुछ भी रचे अवयव ऐसा व्यक्त करते हैं कि इस ढले पिण्डके भीतर असत्य न होगा । यद्यपि इसके निर्माण काल २४००-२००० चेतना एक सुव्यवस्थित और मुसंयत क्रमसे काम कर रही ईसा पूर्वके प्रति कुछ पुरातत्त्वज्ञों द्वारा सन्देह प्रकट किया है। जननेन्द्रियकी स्थिति नियन्त्रणकी भावनासे ऐसा संमेल गया है, परन्तु इसकी स्थापत्य शैलीमें कोई भी ऐसी बात खा रही है कि अनायास ही इन्द्रिय-विजयी जिनकी कल्पनाका नहीं है जो इसे मोहनजोददोकी मृण्मय मूर्तिकाओं एवं वहां- भाभास हो पाता है। इसके मुकाबले में मोहनजोदड़ोकी की डरकीर्य मोहरों पर अंकित बिम्बोंसे पृथक् कर सके। ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दीकी उस उत्कीर्ण मुहरका अध्ययन इस स्थान पर इस मूर्तिका-सम्बन्धी सर मौर्टिमर ह्वीलरके किया जा सकता है जिस पर गेंडा, भंसा, सिंह चीता, हस्ती विचार जो INDUS VALLEY CIVILISATION (Ca- आदि पशु, तथा पक्षी, मनुष्य धादि मोंक मध्य ध्यानस्थ mbridge History of India. 1953)के बैठे हुए रुख-पशुपति-महादेवकी मूर्ति रचनात्मक स्फूर्तिकी पृष्ठ पर प्रकाशित हुये हैं, उद्धत करने योग्य हैं- अर्ध्वमुखी प्रेरणाको व्यक्त करती हुई अर्ध्वरेतस् मुद्रा में अंकित
"इन दोनों मूर्तिकानों में जो अपने उपलब्ध रूपमें है। मोहनजोदड़ो वाली मुहर पर अंकित देवताकी मूर्तिकता चार इंच से भी कम ऊंचाई वाले पुरुषाकार कबन्ध है ऐसी का स्पष्टीकरमा ऋगवेदकी निम्न ऋचाश्रीसे पूर्णतया सजीवता और उल्लास भरा है जो ऊपर वाणित रचनायों होता हैमें तनिक भी देखने को नहीं मिलता। इनकी ये विशेषता (१) ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषि- ...' इतनी स्वस्थ और परिपुष्ट है कि अभी इन्हें सिंधु-युगकी
विप्राय महिपोपुनावान कहने और सिद्ध करने में कुछ आपत्ति-सी दीख पड़ती है।
श्येनो ग्रभामं सवधितिर्वनानां सोमा - दुर्भाग्यसे वे वैधानिक उपाय जो इनके अन्वेषकों द्वारा
पत्रिनमत्येति रंधन
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