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अजमेरके शास्त्र-भएडारसे
पुराने साहित्यकी खोज
(जुगलकिशोर मुख्तार, 'युगवीर')
(गत किरणसे भागे) गतवर्णके भादों तथा आश्विनमासमें संवा चाहिये था, अभीतक धर्मामृतके किसी भी संस्करणमहीना अजमेर ठहरकर बड़ा घड़ा पंचायती जैन- के साथ प्रकाशित नहीं हुआ और न उसकी किसी मन्दिरके भट्टारकीय शास्त्र-भंडारका निरीक्षण करते लिखित ग्रन्थ-प्रतिके साथ जुड़ा हुआ ही मिला है। हुए जो कितने ही अश्रुतपूर्व तथा अलभ्य ग्रंथ उपलब्ध जान पड़ता है आशाधरजीने इसे सागारधर्मामृतकी हुए हैं उनमेंसे कुछका परिचय यहां और दिया टीकाके भी बाद बनाया है, जो कि विक्रम सं. जाता है:
१२६६ पौषकृष्ण सप्तमीको बनकर समाप्त हुई है। ७. अध्यात्म-रहस्य
क्योंकि उस टीकाकी प्रशस्तिमें इस ग्रन्थका कोई अध्यात्मके रहस्यको लिए हए योग-विषयक यह नामोल्लेख तक न होकर बादको कार्तिक सदि ग्रंथ पंडितप्रवर आशाधरजीकी कृति है। यह ग्रंथ
पंचमी सं० १३०. में बनकर पूर्ण हुई अनगारअभीतक उपलब्ध नहीं था की इसकी मात्र सूचना ही
धर्मामृतकी टीकामें इसका उक्त उल्लेख पाया जाता अनगार-धर्मामृतकी टीका-प्रशस्तिके निम्न वाक्यद्वारा
है। और इससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथकी रचना मिलती थी
उक्त दोनों टीका-समयोंके मध्यवर्ती किसी समय में 'भादेशात् पितुरध्याम-रहस्यं नाम योग्यधात् ।
हुई है और वह मूल धर्मामृत ग्रन्थसे कई वर्ष बादशास्त्र प्रसन्न-गम्भीर प्रियमारब्धयोगिनाम् ॥"
की कृति है। साथ ही यह भी पता चलता है कि प. इसमें बतलाया है कि 'श्रध्यात्म-रहस्य आशाधरजी यद्यपि अपनी इस कृतिको धर्मामृतका नामका यह शास्त्र पिताके आदेशसे रचा गया है। १८ वा अध्याय करार देकर उसीका चूलिकादिके साथही यह भी प्रगट किया है कि 'यह शास्त्र प्रसन्न,
रूपमें एक अंग बनाना चाहते थे, परन्तु मूलमन्थगंभीर तथा प्रारब्ध योगियोंके लिये प्रिय वस्तु है।
प्रतियों और एक टीकाके भी अधिक प्रचारमें योगविषयसे संबन्ध रखनेके कारण इसका दूसरा
पाजाने आदि कुछ कारणोंके वश वे वैसा नहीं कर नाम 'योगोहीपन' भी है। इसका उल्लेख प्रस्तुत
सके और इसलिये बादको अनगार-धमांमृतकी ग्रंथ-प्रतिके अन्तमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है
टीकामें उन्होंने उसे 'अध्यात्मरहस्य' नाम देकर "इत्य-शाधर-विरचित-धर्मामृतनाम्नि सक्रि-संग्रहे योगी- एक स्वतन्त्र शास्त्रके रूपमें उसकी घोषणा की है। हरोपनयो नामाष्टादशोऽध्यायः"
इस ग्रन्थकी पद्यसंख्या ७२ है, जबकि प्रस्तुत ग्रन्थ
प्रतिमें वह ७३दी हुई है। ४४वें पद्यके बाद निम्न__ग्रंथके इस समाप्ति-सूचक पुष्पिका-वाक्यसे यह
गद्यांश नं०४५ डालकर लिखा हुआ है, जिसमें भी मालूम होता है कि पं. आशाधरजीने इसे प्रथ
भावमन और द्रव्यमन का लक्षण दिया हैमतः अपने धर्मामृतग्रंथके अठारहवें अध्यायके रूपमें
"गुण-दोष-विचार-स्मरणादिप्रणिधानमात्मनो भावमनः । लिखा है। धर्मामृतमें अनगार-धर्मामृतके नौ, और सागारधर्मामृतके पाठ अध्याय हैं। सागारधर्मामत तदभिमुखस्णस्यैव अनुप्राहपुद्गखोच्चयो द्रव्यमनः।"
जान पड़ता है यह लक्षणात्मक गद्यांश अगले अन्तिम अध्यायमें उसे क्रमशः सत्रहवां अध्याय प्रकट किया है। यह १८वां अध्याय, जो उसके बाद होना
पद्यमें प्रयुक्त हुए 'द्रव्यमन' पदके वाच्यको स्पष्ट
करने के लिये किसीने टिप्पणीके तौर पर प्रन्थके पं. नाथूरामजी प्रेमीने इसी अक्टूबर मासमें प्रका- हाशिये पर उद्धृत किया होगा और वह प्रतिलेखक शित अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास में भी इस ग्रन्थको की असावधानीसे मूलग्रन्थका अंग समझा जाकर 'भप्राप्य लिखा है।
प्रन्थमें प्रविष्ट होगया और उस पर गलतीसे