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किरण ५]
श्रमणगिरि चलें
कथंकण्डन्न वयंकुडै नगरत्त
था। इस भयंकर समयमें प्ठि-पुत्र कोवलन और उसकी चेम्पियन ट्रन्न चेंचुअर पुनैन्दु
पस्नी करणगि अपने घरको छोड़ रहे हैं । देव उनको आगे नोक्कु विसै तविप्प मेक्कुयरन्दोङ्गि
बढ़नेके लिये बाध्य कर रहा है । बेचारा कोवलन इरुमपूदू चान्ड नम्मपूंज सेक्युम
सुकोमलांगी पत्नीको लेकर आगे चरनेके लिये तैयार हो कुन्ड पल कुलीइप पोलिवन तोन्ड
चुका है । मदुरा पास है क्या ? तीन सौ मील चलना है। अच्चमु मवलमु मामु नीक्की
बेचारी कण्णगि पतिक कहते ही रवाना होने के लिये तयार चेद्रमु उवगयुग सैय्यादु कात्तु
हो गई । कई वर्ष माधवी वैश्याक वशमें श्रा पति अपनको अमनको लन चेन्मत्तागि
भूले हुए थे, इसका उस तनिक भी विषाद न था। करणगि सिरन्द कोल्गै यरंगृ रवैयमुम ।
प्रसन्नताके साथ पतिका अनुगमन करने लगी। प्रभात हानेक इसका संक्षेपमें अर्थ इस प्रकार है:
पहले-पहले कावेरीपूम्पट्टिणसे कई मील दूर पहुँच जानेका इच्छास रहित होकर भूत, वर्तमान, भविष्य इन तीनों उन्होंने निश्चय कर लिया था, इसलिए तेजीमे चले जा रहे कालोंके पदार्थोको अपने ज्ञानके द्वारा जाननेवाले ऐसे श्रमण थे । मार्गमें अरहन्तांक मन्दिर, बुद्ध मन्दिर, वैष्णवोंक श्रास्क लोगोके द्वारा पुष्प, धूप आदिक द्वारा पूजनीय हैं। मन्दिर श्रादि दिखलाई पड़ते हैं । अपनी जल्दीकी यात्राकी यह 'मदुरै कांची' ईसा पूर्व तमिल देशमें रचा गया प्राचीन भी परवाह न कर मार्गमें पाये श्ररहन्त भगवान मनिरामें प्रन्थ है।
प्रवेश कर दर्शन करते थे। कावेरी नदीप दम मील दूर पर स्त्रियोंक सर्वोत्कृष्ट व्रतोंको धारण करने वाली चलिज- एक वनमें श्रा पहुँचे । यहां पर तपारूढ़ एक प्रायिकाको देख काएँ और पार्यिकाएं भी धर्मका प्रचार करती आ रहीं थीं। दोनोंने नम्रतापूर्वक वंदना की । कान्दार्याडगल नामक तमिल वर्णनात्मक साहित्य मिलप्पाधिकारक रचयिता इलंग- आर्यिकाने उन दोनोंको ध्यानसं देखा । भक्रि और नम्रताक कोवडियल कदीयडिगल नामक प्रार्थिकाक मखसे मदर- साथ वन्दना करनेसे वे श्रावक जसे प्रतीत हुए । पाश्रयमूदरमें जो अरहन्त भगवानके मन्दिर एवं वहांके मनियोंका रहित दोनोंको अकेले ही पाया दबकर इसमें कोई कारण परिचय देनेवाले सुन्दर खण्ड हैं उनका अवलोकन करना अवश्य है'ऐमा उन्होंने मनमें मोचा । उनका हृदय दयास चाहिए।
भर पाया, क्योंकि तत्पश्चरणकी महिमा अदभुत होती दो हजार वर्ष पहले की बात है, तमिलदेशके 'कावेरी
है । दयास परिपूरित होकर महान तपस्विनी उनके साथ पृम्पट्टिणं नामक नगरमें कोवलन नामका एक धनाध्य
प्रेमभावस बातचीत करती हैं :-- प्ठि-पुत्र रहता था। वह बचपनसं ही वेश्यागामी हो
उरुवुग कुल नुम उयरब औलुक्क मुम गया था और विवाह हो जाने के बाद अत्यन्त रूपवती सुन्दरी
पेरुमगन निरूमाली पिरला नोन्बुम साध्वी स्त्रीके मिल जाने पर भी वह अपनी बुरी आदत नहीं
उडवीर पन्ना उरुगणालरिर । छोड़ सका | माधवी नामक एक वेश्याके चंगुलमें तो यह कडेंकलिन निगम कर्मादय वारू । ऐसा फं । कि उसने इस अंप्ठि-पुत्रका सर्वस्व ही हर श्ररहन्त भगवानक कहे मार्ग पर चलने वाले इस प्रकार लिया और उसे दरिद्र बना दिया। कोवलनको इस दशामें निःसहाय इस निर्जन वनमें अनेक कठिनाइयों को झेलकर देख उसको पति-परायणा धर्मपत्नी करणगि' ने अपनी
पानेका क्या कारण है? प्रायिकाके पुनीत वचनामृतको पायल पतिको देकर कहा कि इसे बेच करके व्यापार कर मुनकर अपनी दशाको प्रकट किये बिना ही कोवलन बोजेसबका जीवन-निर्वाद कीजिये पर उसने स्त्रीधनको लेना श्रीतपम्बिनीजी, मैं व्यापारके लिये मदुरा जा रहा हूँ । नब और उसे बेचकरक जीवन निर्वाह करना ठीक नहीं समझा प्रायिकाने कहा, आप जानेके मार्गमें घने जंगल हैं । मार्ग और मुदूर देशमें जाकर रहनेका निश्चय किया और अपना ककड-पत्थरोंस भरा हुया है। आपकी पत्नीक कोमल चरण अभिप्राय पत्नीसे कहा । बहुत कुछ बाद-विवादके पश्चात् इस कंकरीले रास्ते पर चलनके लिये समर्थ नहीं है । मार्गमें वह भी साथमें चलनेको नैयार हो गई।
अनेक कठिनाइयां भी पा सकती हैं। श्राप लोगोंको लौट उस समय अन्धकारका साम्राज्य चारों ओर फैला हुया जानेके लिये कहें, तब भी नहीं लौटेंगे, ऐसा विदित होता