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अनेकान्त
__ [वर्ष १४ है । फिर भी इस हालतमें एक बात कहना चाहती हूँ। चीनी यात्री दक्षिण मिल देशमें मदुरैभृदर मुनियोंका मर्वधं प्ठ स्थान अभी तक जो कुछ कहा गया, उसे मत्यसिद्ध करनेके है । वहां अनेक तपस्वी ज्ञानी महामुनि रहते हैं। उन लिये चीनी यात्री हनमांगका भारतयात्रा-विवरण बहुत मुनियोंक पुग्यवचनामृतको मुनना और वहां निर्मापित उपयोगी सिद्ध होता है । वह हमारे देशमें सातवीं शताब्दीक अरहंत दवांके दर्शन में भी करना चाहती हूँ इमलिये मैं मध्यमें आया था और उसने मदुरा कांचीपुरम् अादि नगरोंआपके साथ चलेगी।
का भी भ्रमण किया था। उसने अपने भारत यात्रा-वर्णनमग्री नीच मामा केलवियर
के सिलसिले में यह भी लिखा है कि उस समय मदुरा और अर उ* कट्टांगु अरिविन येत्त
कांची में जैनधर्म बहुत उन्नत दशामें था। तनतमिल नन्नाद तीदूतीर मदुरैक्कु अग्वार पल्लीगल (मुनियोंक निवासस्थान आण्डिय दुल्लम उडैयेन ॥
इस प्रकार प्राचीन साहित्य, चरित्र और शिलालंग्बोक इन वचनोंको सुनकर कोवलनको अन्यन्त अानन्दका सत्यको सिद्ध करनेके लिये मदुरा और उसके आसपास अनुभव हया । पुनः एक बार भतिक माय नतमस्तक हो तीर्थकरोंकी मतियां, जिनमदिर, पर्वत, गुफा, शिलालेख, बोले-स्वामिनी ! आपकी दया हमपर हो, तो हमारे कष्ट चित्रकला, मुनियोंके निवासस्थान श्राज भी जै। क तम सब हवा समान दूर हो जायंगे। फिर मार्गको कठिनाइयां प्राचीन जैन गौरवगाथाकी याद दिलाते हैं । पेरुन्तांग ग्रन्थम तो चीज ही क्या हैं, ऐसा कहकर और उनके कमंडलु, बताये गये थाठ पहाड़ोंके साथ साथ वृपभरमल, पशुमल पिच्छी और नाडपत्रीय शास्त्र आदि को कंधे पर लटकाकर श्रमणमल आदि पहाट चरित्र-चिन्हस्वरूप भगवानकी उन्होंने वहांम चलना शुरू किया। सब मंत्रों में सर्वश्रेष्ठ मतियोंको लिये उन्नत मस्तक होकर विद्यमान हैं। णमोकार मत्रका पाट करन हुए व अाग बढे । इस प्रकार इन सबको दम्वनसे यह स्पष्ट हो जाना है कि तमिल इलगकोवडिगलने सिलपाधिकारमें कहा है। तमिलनाडक
देश और जैनकाल इन दोनोंको पृथक्-पृथक नहीं कर सकते प्राचीन मदुरा नगर और उसके श्राय-पापके हिम्म जन ।
न हैं। जैन कालक इनिरासकी खोज करनेके लिये तमिलदेशम समयमें बहुन उर। शामें थे इस बात को और भी न करने
ही प्रारम्भ करना चाहिये । पुदुकोई रियायतके शिलालग्नामें लिये मिलाणाधिकारमं मदुगकांड के प्रारम्भमं ही कहा है :
ई. पू. ३०० वर्षकै उन्कीर्ण ब्राह्मी शिलालेग्वमें कुछ उल्लेनिंगल मृण्डुक्मिय निम्मुक्कुई कील
ग्वनीय प्रमाण मिले हैं। यह शिलालेग्य ही अभी तक प्राप्त चंदिर बायद नि अलि सिग्न्दु
हए शिलालेखों में सबसे प्राचीन है, ऐमा शिलालेग्व-प्राविको दे ताल पिण्ड कोनिल लिम-द
प्कारकोंका अभिमत है । इस प्रकार बीमों शिलालेग्व आदियिर पत्त अरिवगे वाङ्गि
तमिलनाड़में मिले हैं। इसलिये जैन कालक इतिहासको और भी इलगकोवड़िगल पेरान्तोंग ग्रन्थों बहुन प्रशंसाक जाननेके लिये तमिलनाड अर्थात् तमिल देशसे ही शुरु माथ कहा है :
करना होगा। इस विषयमें वाद-विवाद या विचारों में भिन्नता परंगकुन्ड, स्वगम पप्पारमपल्ली
होनेकी बात ही नहीं है और पहले अगत्तियरके चरित्रको अरु गुण्डम पेरान्दै अानै इमंगुण्डम
खोजकर देखें तो कृष्ण भगवानक समयसे पहले ही जैनधर्म एन्ड्रेट वेरपुम पडुनियम्ब वल्लारक्कू बहुन अच्छी दशामें था। पहले अगत्तियर कृष्ण भगवान्की चेण्ड टुमो पिरवि तींगु ॥
आज्ञासे करीब अठारह परिवारोंके साथ तमिलदेशमें पाकर मदुराक अन्तर्गत त्रिपरंगकुन्ड्रम, प्रोस्वगम, पप्पारम, बसे । इस बातक उल्लेखसे भी जनकाल बहुत प्राचीन शमण रपल्ली अरु गुन्ड्रम्, पेरानंदम्, थानमले अलगरमले समयसे चला आ रहा है यह स्पष्ट हो जाता है। अतः ये पाठ पहाड मुनियों के निवासस्थान एवं अरहंत भगवानक चन्द्रगुप्त महाराजके कालमें भद्रबाहु स्वामीके दक्षिण भारतमें पुण्यस्थान होनेके नातं उन पहाड़ियोंके दर्शन करनेवाले तथा प्रानेसे ही यहां जैनधर्मका प्रारम्भ हुश्रा है ऐसा कहना बड़ी उनके कहे मार्ग पर चलने वालेका जन्म-मरणका भझट ही भूल है । पहले अगत्तियरके समय से पहले ही जैनधर्म उन्नत छूट जाता है, ऐसा कहा गया है।
दशामें था यही सत्य मालूम होता है। इसीको रद करनेके