Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 163
________________ किरण ५ श्रमणगिरि चलें १३७ % - - vicinity of the monuments. त्यागियोंकी तपस्याका चमत्कार । With kind regards. धर्मकी महिमारूप श्रमणगिरि मुनियोंका तपोभूमि है Yours sincerely, इसलिये हम सभी श्रमणगिरि चलकर भगवान ऋषभदेव, (Sd.) V. D. KRISHNASWAMY. नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर श्रादि तीर्थकरोंका दर्शन करें। इस अानन्दपूर्ण शुभ समाचारको पढ मेरी खुशीका भगवान् ऋषभदेव ही इस दुनियामें सबसे पहले धर्म-मार्ग ठिकाना न रहा। प्रानन्द्र में अपने पापको भूल बैठा । उस पर चलनेवाले थे तथा उनका धर्मोपदेश (दिव्यध्वनि) जवान भोला ।। पत्रको अनेक बार पढ़ा । इसी शुभ अवसर पर उदकमंडलसे ही भारतवर्ष में श्रादि ग्रन्थ माना जाता है। श्रमणगिरिक शिलालेखोंका पूर्ण विवरण भी श्रा पहुँचा । उन सबोंको मैंने बारमा देखापटान कोई भी ऐसा भारतीय साहित्य नहीं है जिसमें इनकी हो रहा था दसवें शिलालेखको पढकर । भाच्चान श्रीपाल प्रशंसा न की गई हो । तिरुक्कुरलके रचयिताके द्वारा प्रशसा नामक धर्मात्माका ही यह समाचार है। ये सब पाश्चर्यमें किये जाने वाले ग्रादि भगवान् ये ही हैं। तोलकाप्यम्में डालनेवाली ही बाते हैं। मेरी यात्राका जाना, मैं जिम के 'कन्दली' नामसे इन्हींका उल्लेख किया गया है । कन्दली बसमें गया था उस बमका पर्वतके पाससे गुजरना, पर्वतके शब्दका अर्थ है निर्मोही । 'णिग्गंय' शब्दका अनुवाद ही नजदीक जाने पर ही बसका खराब होना, इस निमिनसे कन्दली है। सिलप्पधिकारमें भी निग्गंथ कोट्टम शब्द दिया पर्वतको देखने का अवसर मिलना, ऐतिहासिक घटना-मय हुअा है । इसलिये सारा भारतवर्ष भगवान ऋषभदेवको श्रादि श्रमणगिरिका पता चलना, उसको मड़कों पर डालने के लिये भगगनक नामसे प्रथम धर्मकर्ता और प्रथम गरुके नामसे ग्रावल कंकड़ के रूप में तोड़ा जाना. इस अन्यायको देखकर वर्णन करता आ रहा है। हमारे भारतके उपराष्ट्रपति दु.ग्वी होना, पत्थरोंके तोड़नेको रोकनेके प्रयत्नमें विजय तत्त्ववेत्ता डा. श्री. राधाकृष्णनक 'हिन्दुतत्त्व' नामक ग्रन्थमें. पाना, उस पुण्यगिरिके शिलालेखों में प्राच्चान श्रीपालके ही ऋग्वेद, भागवतके जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी भगवान ऋषभनामसं एक मुनिका धर्मवृद्धि करनेवाले समाचारका जानना देव प्रशंसाके पात्र बने हुए हैं। ई० पू० पहली शताब्दीमें श्रादि ये सब बात पूर्वभवसे सम्बन्धित सी मालम होती है। सभी जनता ऋषभदेवको ही मानती थी । इमको सिद्ध मेरे इस कथनसे पाठकगण यह न समझे कि में अपने करनेके लिये विपुल मामग्री उपलब्ध है । इनके वर्णनोंसे मुंह मियामिठ्ठ बन रहा हूँ। क्योंकि ज्ञात होता है कि ई० पू० पहली शताब्दी में अनेक भिम भिम मन थे। लोगोंके द्वारा नि-भिन्न देवताओंके माने ओस्मैक्कण तानकर कल्वी ओरुवरकु जाने पर भी भगवान ऋषभदेवको विवाद-रहित धर्मचिन्ह एनुमैयुम एभाप्पुडैत्त ॥ स्वरूपमें मानते थे, इसमें पदंह ही नहीं है। कुछ समयके अर्थ-एक समयमें पढी हुई विद्या सात जन्म तक बाद उस समय होने वाले धार्मिक-मनभेदके कारण जनताके लगातार चली थाती है । ऐसा निरुक्कुरलके प्राचार्य अन्दर विभिन्नताकी भावना पाई और पारस्परि. मत भेद कहते हैं। बढता गया। बन्धुत्वकी-भाईचारेकी-भावना जाती रही। धर्मरूप इस पवित्र पर्वतको देखकर उसकी रक्षा करने ही प्रेमकं स्थानमें ईर्ष्याने श्रडा जमा लिया। मध्यस्थ-भाव का सौभाग्य प्राप्त होने के बाद ही में अपने जीवनसे जटा हया छल-कपट और ईप्याक रूपमें बदल गया। जीवकारुण्य-सेवाके मार्गमें अग्रसर हा। मद्रास असेंबलीमें यह परिस्थिति जन-समूहके चरित्रमें नाशका मूल कारण बलिप्रथा रोकनेके लिए और माधारण जनताके बीच इस बनी । अपने माता-पिताके मार्ग पर चलनेके सिवाय मत कानुनको लानेके लिये जो प्रयास किया उममें भी मुझे सफ- या समय हमारे जन्मके साथ-साथ पैदा होने वाले नहीं लना मिली। १४ सितम्बर सन् १० को गवर्नर तथा होते । बुद्धिक बलसे, अन्वेपोंके द्वारा, अनुभवके सामर्थ्यसे असेम्बलीके मेम्बरोंकी मान्यतामें इसके लिये कानून बनाया हम अपने लिये और जनताकी भलाई के लिये जो सर्वश्रेष्ठ गया । वह कार्यरूपमें भी परिणत हो गया । यह विजय मार्ग है उसका अनुक ण कर सकते हैं। अपने देशके पूजाके अहिंसाकी विजय है, धर्मका प्रभाव है, और है श्रमणगिरिके वर्णनोंको पढ़े तो हमें मालूम होगा कि हम लोग कितने

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