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अनेकान्त
[वर्ष १४
ऊपर गया और एक तरफकी घासको हटाकर देखा । बस सस्मित दिव्य प्राकारको देखनेसे वह जीवित प्रतिमाकी उस चहानके नीचे कलापूर्ण ढंगसे बनायीं गयीं तीर्थंकरोंकी तरह दिखलाई पड़ी। मूर्तियां दिखलाई पड़ीं। मुझे असीम आनन्दका अनुभव उसके बाद मैंने गुफामें प्रवेश किया। वह गुफा एक हमा । श्रमणगिरिक इतिहासको ही मैंने पा लिया, यह सोच. ही चट्टानसे बनाई हुई है। उपरी भाग Dor सोचकर मेरा मन फूला न समाया । तुरन्त दोनोने गोलाकार है । उसका आधा भाग टूटकर नीचे गिर गया है। सब ओरकी घासको हटाकर देखा । संसार-समुद्रसे पार उस गुफाक ऊपरी भाग जो गोलाकार है उसके चारों तरफ करनेवाले पूज्य तीथंकरोंकी प्रतिमाएँ दिखलाई दीं। आदि- तीर्थंकरोंकी पवित्र मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। गिरे हुए भागों में भगवान, महावीर, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और गोमटेश्वर भी प्रतिमाएं रही होंगी ऐसा अनुमान होता है। उन आदिकी प्रतिमाएँ वहां थीं। वे प्रतिमाएं शांतस्वरूप और चट्टानोंको पलटे बिना उन प्रतिमाओंको देख नहीं सकते जनताको सन् चारित्रका मार्ग बतानेवाली थीं, अहिंसाक हैं। उस गुफाको चट्टानमें ये शब्द H. K. Poln १८.४ अवतार थीं। उन प्रशान्त दिव्य प्रतिमाओंको देखते ही मेरे काली स्याही से लिखे हुए हैं। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है विचार न जाने कहां-कहां विचरने लगे। प्रतिमाओंको घाससे कि H. K. Poln नामक अंग्रेज विद्वानने १८७४ ई० में ढकी रहनेक कारण उनपर काई जम चुकी थी। तमल इसे देखा होगा। भाषाकी वृद्धिमें जिनका अधिक हाथ था उन विद्वानोंक इस पर्वतको घूमकर पूरा दग्वनेसे कुछ विस्तरों एवं रहने की जगहमें आज कौआ आदि पक्षी सुखसे रह रहे हैं। शिलालेखोंके सिवाय और कोई खास चीज दिखलाई नहीं दुनियांकी जनताको धर्म-मार्ग बतानेवाले धर्म-चक्रवर्ती तीर्थ- पड़ी। उस पर्वतके पश्चिममें दो फागकी दूरी पर एक करोकी प्रतिमायाँको देखते ही अपने आप मेरे कर बद्ध हो पहाड़ जिसे आज पेरुमाल कोइल मर्ल' के नामसं कहा गये। चारणमुनि, कउंदीयडिगल, कोवलन, करणगि श्रादिके जाता है -के पास गया। उसके दक्षिण भागमें खुली गुफा द्वारा प्रशंसा किये जाने वाले सिलप्पधिकारके स्तोत्रोंका दिखलाई पड़ी। इस गुफाके प्रवेशद्वारके ऊपर दो तीर्थकरोंकी स्मरण हो पाया। आनन्दात्रु बहने लगे। उन प्रतिमाओं प्रतिमाएँ है, तथा दो शिलालेख भी बुद हुए है । इस गुफा को पाकर मैं थोडी देरके लिए अपने आपको भूल गया। के ऊपर श्रमण मुनियों की तपस्याके चिन्ह स्वरूप चिकने
इस विशाल जगहमें करीब २०० आदमी बैठकर अच्छी बिस्तर भी खोदे हुये हैं। उन बिस्तरोंक पास में एक जैन तरह ध्यान कर सकते हैं। इस प्रतिमाके सामने खड़े होकर तीर्थकरकी प्रतिमा रखी हुई है। पूर्व की तरफ रप्टि दौड़ायें तो हमें मीनाक्षी अमन मन्दिरके अप्टोपवासी अर्थात् पाठ दिन उपवास के उपरान्त एक पश्चिममें जो शिखर है. दिखाई पड़ता है। इस शिखरसे बार अाहार लेनेवाले गुणसनदेव जैसे महामुनिने इस पवित्र उस पर्वतको देखें तो ये मूर्तियां एक पंक्रिमें स्थापित दिखलाई स्थान पर रहकर कठिन तपस्या की है। अतएव सभव है पड़ती हैं। इसलिए मन्दिर एवं गिरिका अवश्य कोई सबध कि इस पर्वतका नाम भी श्रमणगिरि रखा गया हो। ये होगा, ऐसा अनुमान लगाया जाता है । खड्गासन और पहाड़ी भाग निस्सन्दह ईस्वी पूर्वस ही मुनियों के निवास पद्मासन प्रतिमाएं बहुत सुन्दर कलापूर्ण ढंगसे बनवायी स्थान रहे होंगे। इस पुण्यगिरिके दर्शन तिरुक्कुरलके गयो हैं । इन प्रतिमाओंके पास पास और निचले भागमें रचयिता, जीवकचिन्तामणि के रचयिता तिकतकदवर, चूड़ागोलाकार अक्षरोंके शिलालेखोंमे इन प्रतिमाओंके निर्माण मणिके तोलामोलिदेवर, नालड़ियारके श्रमणमुनि, द्रविड़ पादिका विवरण दिया हुआ है,
संघके निर्माता वज्रनंदियगिल और भी कई विद्वानोने, इसके अन-तर में शिखर पर गया। वहां एक खंडहर कवियों ने, श्रावक-श्राविकाओं आदिने किये होंगे, ऐसा मन्दिरके टुकड़े दिखलाई पड़े। इसलिए नीचे उतरकर दक्षिण मानने में कोई कोई संदेह नहीं है। अनेक प्रमाणोंसे इस भागमें कछ ध्यानपूर्वक देखना प्रारम्भ किया। कुछ दूर बातकी पुष्टि भी होती है। जानेके अनन्तर एक गुफा मिली, जिसके प्रवेश-द्वा की चट्टान इतने प्रशंसनीय एवं महत्त्वपूर्ण इस ऐतिहासिक पर्वतक में करीब चार पांच फीट ऊँची महावीर भगवान्की पवित्र भागोंको सड़क पर डालनेके लिये गिरावल कंकड़के रूपमें मूर्ति उत्कीर्ण है। उस प्रतिमाकी शिल्पकलाको उसके तोड़ते हुए मैंने देखा। अफसोस ! उसको देखते ही मैं नहीं