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अनेकान्त
[वर्ष १४
महत्ताको अपने ज्ञानसे जानने वाले थे। क्योंकि 'जे एगं इसलिये विद्वत्समाज तोलकाप्यम् , तिरुक्कुरल, सिलजाणइ से सम्बं जाणइ' अर्थात् जो केवल एक अपने पापको प्पधिकार, जीवकचिन्तामणि, वलैयापति, सूलामणि, नालजानता है, वह संसारक सर्व पदार्थोको जानता है, ऐसा डियार, पलमोलिनानूरु, एलादि, अरनेरिचारम, यशोधर श्रागम सूत्र में कहा गया है। उपयुक्र बातोंको सिद्ध करनेक काव्यके जैसे कई ग्रन्थोंको सार्वजनिक ग्रन्थ मानकर ही लिये तिरुक्कुरल में भी ऐसा ही कहा गया है
प्रशंसा करता है। तमिल भाषाको प्राचीनता और गौरवता 'सुवै ओलि, उम्, ओस, नाट टूम, एन्ड्रोन्दिन प्रदान करने वाले उपयुक संघोंमें निवास करने वाले महावगैतेरिवान कट्टे उलगु।
मुनि लोग ही थे। उन महामुनियोंमें श्रादि अत्तियर, भावार्थ:--पंचभृतांक तस्वोंको अच्छी तरह जानने तोलकाप्यके रचयिता अविनयनार, निरक्कुरल कान्यके रचवालेको ही इस दुनियांक विषय अच्छी तरह मालूम हैं। यिता कुन्दकुन्दाचार्य, समन्तभद्राचार्य, जिनसेनाचार्य, अक
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रन- लंकदेव, कोगुवेलिर, तिरुतक्कदव, तोलामोलिदेवर, वज्रनंदि, प्रयको धारण करने वाले ये श्रमण समिल देशके पर्वतों, भवनन्दि,अमृतसागर, गुण-गर, जयकोण्डार अाकाशगामी गुफाओं, ग्रामों, मठ में रहकर स्थानों और धा-स्थानोंकी मुनि श्रादि मुख्य है। तमिल, प्राकृत और संस्कृतभाषा स्थापना कर जनताक चारित्रकी शुद्धिक लिये शिक्षा और तथा और भी कई भाषाओं में पौडिन्य प्रात किये इन तमिल दीक्षा देते हुये जनतामें धर्म और ज्ञानकी वृद्धि करते रहने मुनियोंके जीवनचरित्रके बारेमें नहीं जाना जा सका । जैसे थे। इन महामुनियोंक द्वार स्थापित किये गये संघोंमें मूल- तिरुक्क रलके रचयिताके जीवन च रत्रको नहीं जान सके.वैसे मध, सेनसंघ, पुन्नाट-घ, वीरमघ, सिंहघ, नन्दिगंध, ही कई प्राचार्योक जीवनके बारेमें नहीं जान सके है । मुनिसंघ, द्रविड़संघ और अरु गलावन्वयम् के जमे कई संघ नि:स्वार्थी तपस्वियोंके द्वारा रचे गये ग्रयों में अपने बारेमें या तमिल दशक इतिहासमें प्रथम स्थान पाये हुए है। इन अपने जीवनचरित्रक बारेमें कहीं भी कुछ लिखा श्रमण-मुनियोंने शाम और सुबह विद्याको ही लक्ष्मी-स्वरूप नहीं मिलता । जनताको भलाई, चारित्र-वृद्धि और ज्ञानके समझ भिन्न भिन्न कालोंमें काव्य, नीतिशास्त्र, खगोलशास्त्र, प्रचारके सिवाय उन्होंने अपना परिचय देनेकी इच्छा नहीं जीवनशास्त्र, राजनैतिकशास्त्र, लौकिकग्रन्थ, व्याकरण, की। यह उनके नि.स्त्रार्थताकी चरम सीमा है। यही तपका साहित्य, गणितशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, वैद्यशास्त्र आदि महत्व है और उनकी महिमाका द्योतक है। अगणित ग्रन्थ रच हैं। ये सभी ग्रन्थ 'सर्वजनहिताय' भगवान ऋषभदेवके द्वारा बताये गये गृहस्थधर्म और अर्थात् संसारक मानवमात्रके हितार्थ ही रचे गये हैं। ये यतिधर्मको ही श्रावक और श्रमण धर्मके नामसे पुकारते हैं। महामुनि श्रादि भगवान् ऋषभदेवक द्वारा कहे गये धर्ममार्ग श्रावकका श्रर्थ गृहस्थधर्मको पालन करने वाले और श्रमणपर चलने वाले थे. इसलिये इन ग्रन्थों में किसी एक समय- का अर्थ मुनिधर्मका पूर्ण पालन करने वाले होता है। ये को लेकर या किसी एक मतको लेकर नहीं कहा गया है। पूर्ण ज्ञानी तमिल देशभरमें फैले रहने पर भी अधिकतर इसीको और भी स्पष्ट करने के लिये पुरणानूरमें कहा गया है। पाण्ड्यदशमें थे। इन न्यागियोंकी 'मदर कांची' के रचयिता 'यादुम ऊरे यावरूम केलिर'
'मांगुडीमरुदनार' ने इस प्रकार प्रशंसा की है:अर्थात्-दुनिया के मब लोग आपसमें भाई-भाई है। वण्डु पडप्पलुनिय तेनार तो तप ऐसा सतधर्म समन्वरूपसं कहा गया है।
पृवुम पुगैयुग शावगर पलिच्च भगवान ऋषभदेवक द्वारा कहा गया धर्म दुनियांक चेन्ड कालमुम वरू उ ममयमुभ, सभी प्राणियोंके लिये है। इसी सत्यको कलिंगत्त भरणांक इन्डिवटू तोण्डिय ओलुक्कमोडु नन्गुणन्दु रचयिता कधिचक्रवर्ती जयकोरडारकी रचनाओंसे भी जान वाणमु निलनुन तामूलु तुणरुम सकते हैं।
चाण्ड कोल्गै कचाया याक्कै 'उलगुक्कु उर संय' Unnersal अर्थात् ऋषभ- आएट्रडः करियर चरिन्दनर नोनमार देवका उपदंश मनुष्यको 'विश्वजनीन' था अर्थात्, उन्होने कलपालिन तन्न विट्ट वायक्करणडै सारी दुनियांकी भलाई करने के लिये कहा है ।
पलपुरिचिमिलि नाट्टि, नल्गुवर