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श्रमणगिरि चलें
(तमिल लेखक जीवबन्धु टी. एस, श्रीपालाअनुवादक-पी. वी. वासवदत्ता जैन न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न) श्रमण कौन हैं
सिवाय सभी लोगोंकी उत्पत्ति एक सी है ऐसा बताने वाले ___ 'श्रमण' शब्दका प्राकृत रूप 'समण' है । 'सम' शब्दके श्राप साम्यभावकं एक महान् प्रचारक थे। भारतीय साहित्यमें संस्कृतमें तीन रूप होते हैं-सम, शम और श्रम । जो सब आपकी प्रशंसा एक बहुत बड़े योगीश्वरक रूपमें की गई जीवापर समता-भाव रखे, अपने क्रोधादि कषायोंका शमन है। श्रापके द्वारा कही गयी वाणी ही दुनियांकी भाषाओं में करे और अपनी यात्म साधनाके लिये अहर्निश श्रम करे, सर्वप्रथम ग्रन्थ है । इस सत्यको सिद्ध करनेक लिये तोलकाउसे 'ममण' या 'श्रमण' कहते हैं।
प्यम् नामक तमिलग्रंथके रचयिताने निम्नप्रकार कहा हैये श्रमण या जैन साधु सुख-दुख, मित्र-शत्रु, प्रशंसा- विनयिन नीङ्गि क्लिङ्गिय अरिविन। बुराई इन सबों में समताभाव रखने वाले, प्रेम दया और मुनवन कण्डदु मुदल नलागम ।। नम्रताक अवतार, दुनियां में सत्कार्योको करनेके लिये अपने भावार्थ:-कर्मोसे रहित होकर कंवल-ज्ञानको प्राप्त सुखको त्याग करने वाले, पांचों इन्द्रियोंको वशमें करने वाले मुनिक द्वारा बताया गया धर्म ही पहला ग्रन्थ है। तथा 'मैं' और 'यह मेरा' इस प्रकारक भेदसे रहित होकर इसी बातको और भी दृढ़ करनेके लिये तिरुक्कुरलके अपने ऊपर यान वाले सब कण्टीका मामना करने वाले रचयिता कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैहोते हैं। कोई भी श्रमण किसी भी कारण कभी किसी 'अगरमुदलयलुतेल्लाम आदि भगवन मुददै उलगु' जीवकी बुराई मन-वचन-कायस नहीं सोचता। ये श्रमण भावार्थः-अकारादि अक्षरोंको सबसे पहले दुनियाको अंतरग और बहिरंग दोनों में परिशुद्ध होकर उपवासों आदिके बताने वाले प्रादि भगवान् ऋपभदव थे। द्वारा अपने चारित्रकी वृद्धि करते रहने और प्रान्माके साथ
और भी:मंबन्ध रखने वाले शरीरको भी तुच्छ समझ कठिन तप- 'दिवेदम पयन्दाय नी' श्चरण करते रहते है। इस प्रकार यह श्रमण शब्द अनेकार्थ मा जीवकचिन्तामणि नामक तमिल काव्यमें कहा वाला है। इस प्रकारक श्रमणोंको ही तमिल भाषामें गया है। इसलिये भगवान ऋषभदेवक द्वारा बताये गये 'नुरवार' कहकर पुकारते हैं । इसलिये 'श्रमण' और 'तुरवार' मनिमार्गका पालन करने वाले को ही मच्चे तपम्वीक नामसं ये दोनों भाषाकी भिन्नताक कारण ही पृथक पृथक शब्द स्वीकार किया है। इस प्रकारक मुनियोंकी ही मस्कृतमें है पर दोनों एक ही अर्थको बताने वाले है। ये शब्द किमा 'श्रमण' और नमिलमें 'नुरवार' के नामले प्रशंसा की एक ममयम या मतसं सम्बन्धित नहीं है, बल्कि त्यागकी जाना है। महत्ताको बताने वाले हैं।
मुनिअादिक लमें यनिधर्म और गृहस्थधर्मको बताने वाले जानवान, चारित्रवान और कठिन तपस्या करने वाले भगवान ऋषभदेव थे । वे हम लोगोंके ममान माना-पिनास मुनि भारतवर्ष में सर्वत्र फैले हुए थे, विशेषकर तमिलदेश ही पैदा होकर जनताके बीच रहने वाले थे । अहिंसाधर्मक में । ये नमिलदशक मुनि भगवान ऋपभदेवक द्वारा बनाये श्रादि जनक थे। अकारादि अक्षरों एवं एक-दो-नीन आदि गय धर्म, अर्थ, काम और मोन इन चारों पुरुषार्थीको अंकोंको बताने वाले प्रथम विद्या गुरु थे। अमि, मपि, प्रधानता देकर बनाये गये तोलकाप्य, निरुक्करल इन दोनों कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या प्रादि पदकर्मोको पिखलाकर ग्रन्थों में बताई गई तपम्याकी विधिको पूर्ण रूपेण पालन जीवन-यापनका मार्ग बताने वाले श्रादि विधाता थे । जनता- करने वाले थे। व अहिंमांक अवतार और श्रान्मतत्व एवं को अच्छे मार्ग पर लगाने वाले गृहस्थधर्म और यतिधर्म ज्ञानतत्त्वक दृष्टा थे। वे नर्कशास्त्र, तत्ववाद, न्यायवाद, इन दोनोंको बताने वाले यादि धर्म-प्रवर्तक थे । श्रावश्य. क्रियावाद आदिमें निपुण होते थे। श्राजकी भौतिकवादी कतासे अधिक पदार्थोंको इच्छा और मंग्रह करना, पांचों दुनियांक अग्णुका ज्ञान भी उन्हें था और इस प्रकार वे पापोंमें सबसे बडा पाप बनाकर परिमित परिग्रह व्रतको वैज्ञानिक भी थे। ये लोग भूत भविष्यकी बातोंको भी उपदेश देनेवालं आप ही मर्वप्रथम थे। कर्म-जनित भेदक जानते थे और अपनी यात्माक समान आकाश क्षेत्र प्रादिकी