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पंचाध्यायी के निर्माण में प्रेरक
( जुगलकिशोर मुख्तार, 'युगवीर' )
'पंचाध्यायी' जैन समाजका एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है, fare मूल तथा टीकादिके साथ में अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके है। इसके कर्ता १७वीं शताब्दी के प्रमुख विद्वान् कवि राजमल्लजी हैं, यह मुनिर्णीत हो चुका है । कवि राजमल्लजी बनाए हुए दूसरे चार ग्रन्थ और भी उपलब्ध हैं, जिनके नाम हैं-१ जम्बूस्वामि चग्नि २ लाटी संहिता, ३ श्रध्यात्मकमल मार्तण्ड, और ४ छन्दोविया ( पिंगल ) । दूसरे सव उपलब्ध ग्रन्थ जब पूर्ण हैं तब पंचाध्यायी ही ऐसा ग्रन्थ है जो १९०६ पद्य में उपलब्ध होते हुए भी बहुत कुछ अधूरा है, वह पूर्ण नहीं हो सका और अपनेको निर्माणाधीन स्थिति में ही प्राप्त हुआ है । प्रथम दो ग्रन्थ क्रमशः श्रग्नबाल वंशी साहू टोडरकी तथा साहू फानकी प्रेरणाको पाकर उनके लिये लिखे गये हैं, छन्दोविद्या श्रीमालवंशी राजा भारमल्लके संकेतको पाकर उनके लिये लिग्बी गई है और अध्यात्मकमलमार्तण्ड स्वतः की प्रेरणाको लेकर प्रधानतः अपने लिये लिखा गया है । परन्तु पंचाध्यायीक रचनेमें श्राद्य प्रेरक कौन महानुभाव रहा है यह उपलब्ध एवं प्रकाशित ग्रन्थ-प्रतियों परसे अभी तक कुछ भी मालूम नहीं होता । इसीसे मैंने अध्यात्मकमल मार्तण्डकी प्रस्तावना पृष्ठ २८ में लिना था कि – 'पंचाध्यायी की रचना किसी व्यक्ति विशेषकी प्रार्थना पर अथवा किसी व्यक्ति विशेषको लक्ष्य में रखकर उसके निमित्त नहीं हुई । उसे ग्रन्थकार महोदय उस समयकी श्रावश्यकताओंको महसूस ( श्रनृत) करके और अपने अनुभवोंसे सर्वसाधारणको लाभान्वित करनेकी शुभ भावनाको लेकर स्वयं अपनी स्वतन्त्र रुचि लिया है और उसमें प्रधान कारण उनकी सर्वोपकारिणी वृद्धि है, जैसा कि मगलाचरण और ग्रन्थप्रतिज्ञां श्रनन्तर ग्रन्थ निमित्तको सूचित करनेवाले स्वयं कविके निम्न दो पद्यों प्रकट हैअत्रान्तरं गहेतुर्यद्यपि भावः कवेर्विशुद्धतरः ।
तास्तथापि हेतु साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धिः ||५|| सर्वोऽपि जीवलोकः श्रोतु कामो वृपं हि सुगमोक्त्या । विज्ञप्ती तस्य कृते तत्राऽयमुपक्रमः श्रयान् ॥६॥
परन्तु बात सर्वथा ऐसी नहीं है, पंचाध्यायी जैसे महान् ग्रन्थके निर्माणको प्रारम्भ कराने में भी कोई श्राग्र
प्रेरक जरूर रहे हैं और वे हैं उक्त साहू टोडर सुपुत्र श्री ऋषभदामजी, जिनके नामांकित शुरूमें यह ग्रन्थ किया गया था और इसका नाम भी 'ऋषभदासोल्लास' रखा गया था। इसका पता गत भादों माममें व्यावरके 'श्री ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन' का निरीक्षण करते हुए मुझे पंचाध्यायीकी एक प्रतिसे चला है। जिसका आथ भाग निम्न प्रकार है
“ऋषिसमुदयमनुदिव्या, वाणी नैकार्थगर्वि (भिं)ता यम्य प्रादुर्भवति विपंका तमहं वन्दे महावीरम ||१|| शेपानपि तीर्थकराननन्तसिद्धानहं नमामि समं । धर्माचार्याध्यापक माधुविशिष्टान मुनीश्वरान वन्दे ॥२॥ जीयाज्जैनं शासनमनादिनिधनं सुवंद्यमनवंद्यम । यदपि च कुमतारातीनदयं धूमध्वजोपमं दहति ||३|| ऋषभदासोल्लासाख्यं शास्त्र कसम ॥४॥ गुरुन पंच नमस्कृत्य कृतार्थः स कविः पुनः । अत्रान्तरं हेतुर्यद्यपि भावः कवेर्विशुद्धतरः । तोम्तथापि हेतुः पुत्रः श्रीमाधोप्टोडरम्य वरः ॥५॥ नाम्ना श्रीऋपि (भ) दामःश्रोतु कामः सुधर्ममुगमोक्त्या विज्ञप्तौ तम्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान ॥६॥
इन मंगल- प्रतिज्ञात्मक छह पद्योंके बाद ग्रन्थप्रतिमें 'सति धर्मिणि धर्माणां' नामक ७वें पद्यसे लेकर 'इत्यादि यथासभव, नामक ७६८ पद्य तक का वह है जिसे मुद्रित प्रतियों में प्रथम अध्याय सूचित किया गया है और उसके अन्त में 'द्रव्य - सामान्य प्ररूपण' ऐसा लिखा है।
प्रस्तुत ग्रन्थप्रतिके उक्र छह पद्योंमें दूसरा और तीसरा ऐसे दो पद्य तो वे ही हैं जो पंचाध्यायीकी मुद्रित प्रतियों में उन्हीं नम्बरों पर पाये जाते हैं। शेष चारों पद्य थोड़ा बहुत बदलकर रखे गए हैं और वे मुद्रित प्रतियों में निम्न प्रकारसे पाये जाते हैं
'पंचाध्यायावयवं मम कतुन्थराजमात्मवशात ।
लोकनिदानं यस्य वचस्तं स्तुवे महावीरम ॥ १ ॥ इति वन्दितपंचगुरुः कृत-मंगल-सत्क्रियः स एप पुनः । नाम्ना पंचाध्यायी प्रतिजानीते चिकीर्षितं शास्त्रम ॥४॥