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किरण ३-४] 'ग्रेऽहं कस्त्वं कथमायातः, का मे जननी को मे तात:। हुए, यह बतलाया है कि मस्ति जिनेशको (पूर्व भवमें) इति परिभावयतः संसारः, सर्वोयं [खलु स्वप्नविहारः ॥ मायाचार-पूर्वक तप करनेके कारण स्त्रीपर्यायको वर्णोच्चारण-करण-विहीनं, यदिदं गुल्-संकेते बीनं । - धारण करना पड़ा। और इससे यह अन्य किसी स्वयमुन्मीजति यस्य ज्ञानं, पुनरपि तस्य न गर्भाधानम् ॥१०. श्वेताम्बर विद्वान्की कृति जान पड़ता है क्योंकि
श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें ही मल्लिजिनेन्द्रको स्त्री अनेक शास्त्रमण्डारों और बहुत-सी ग्रन्थ- बतलाया है। अतः इसके रचयिताके नाम भादिककी सचियोंको देखने पर भी अभी तक इस ग्रंथका नाम खोज होनी चाहिये । आशा है कोई भी खोजी उपलब्ध नहीं हुआ था और इसलिये यह ग्रन्थ भी विद्वान इस पर प्रकाश डालनेकी कृपा करेंगे। यदि अभुतपूर्व तथा अलभ्य जान पड़ता है । इसके रच- यह ग्रन्थ अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है तो यिता कौन हैं? यह ग्रन्थपरसे कहीं उपलब्ध नहीं शीघ्र ही प्रकाशित किये जानेके योग्य है । पढ़ने-सुननेहुआ। हां, एक स्थान पर इसमें निम्न पद्य पाया में यह बडा ही रोचक मालूम होता है और उस जाता है
विवेकको जागृत करने में बहुत कुछ सहायक है जिससे, "हन्त समूलं मायावहिल, कम्मष-परिमल-विकसितमवितम्। प्रन्थके प्रथम पद्यमें दिये हुए रचना-उद्देश्य के अनुकैतप-तपसा मल्लि जिनेशः, स्त्रीया ( राम उपदेशः ॥१० सार, विवेकीजन मोहको छोड़नमें प्रवृत्त हो सकते हैं। इसमें, मायावल्लीको मूलतः काटनेकी शिक्षा देते
(क्रमशः)
श्री. राधेश्याम बरनवालफागुन की अरुणाई में जब पहले-पहल मैने तुम्हारा केवल तुम्हारी बचपन की याद को अपने सीने पर दर्शन किया
लगाए। तालाब के किनारे!
लेकिन तभी मेरी निगाहें तुम्हारे प्रामामय मस्तक तुम लगी
की मोर उठ गई। शबनम की बूंदों की तरह-निश्छल
ओह, उस पर की सिन्दूरी रेखा ने जैसे मुझे बेना की पखड़ियों की तरह खूबसूरत
ढुस-सा लिया। और मदिरा की तरह-मादक ।
तो तुम अब पराई हो, ओह ! तालाब का नीलाजल जैसे आसमान था बचपने के प्रेम और अधिकार का शताँश भा मेरा
और उसके तट पर खड़ी तुम जैसे चाँद थीं। अब तुम पर नहीं? मेरा हृदय तुम पर लुट चुका था।
तभी तुमने जल से भरा गगरा उठाया, मैं स्वप्नाविष्ट-सा तुम्हारी भोर बढ़ा।
और धीरे कदमों मुड चलीं। तुम्हारी सीपी-सी पलकें क्षण भर को ऊपर उठी, कुछ धीरे धीरे तुम्हारी छाया, गाँव की गोद में जा, विलीन फैली, फिर तत्क्षण हो नीची हो गई।
हो गई। शायद तुम भी मुझे पहचान गई थीं।
जख्म से भरे घायल पक्षी की तरह खड़ा-खड़ा मैं बचपन में हम दोनों साथ-साथ खेले थे। तड़पड़ाता-छटपटाता रहा,
और भाज दस साल बाद मैं गाँव को वापस लौट और फिर मेरे थरथराते किन्तु तेज कदम वापस रहा था।
स्टेशन की ओर मुड़ चले। -'युगमाया' से