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अनेकान्त
वर्ष१४
होनो है वह अपने नियत स्वभाव के कारण होगी चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध, इस परिवर्तनचक्रसे ही, उसमें प्रयत्न निरर्थक है। उपादान शक्ति से ही अछूता नहीं रह सकता। कोई भी किसी भी पदार्थ वह पर्याय प्रकट हो ही जाती है, वहां निमित्त की के उत्पाद और व्यय रूप इस परिवर्तन को रोक उपस्थिति स्वयमेव होती है, उसके मिलाने की नहीं सकता और न इतना विलक्षण परिणमन ही भावश्यकता नहीं। इनके मत से पेट्रोल से मोटर करा सकता है कि वह अपने सत्त्व को ही समाप्त वहीं चलती, किन्तु मोटर को चलना ही है और कर दे और सर्वथा उच्छिन्न हो जाय । पेट्रोल को जलना ही है और यह सब प्रचारित हो (३) कोई भी द्रव्य किसी सजातीय या रहा है द्रव्य के शुद्ध स्वभाव के नाम पर। इसके विजातीय द्रव्यान्तर रूप से परिणमन नहीं कर भीतर भूमिका यह जमाई जाती है कि एक द्रव्य सकता । एक चेतन न तो अचेतन हो सकता दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता। सब अपने है और न चेतनान्तर ही। वह चेतन 'तच्चेतन'
आप नियति-चक्रवश परिणमन करते हैं। जिसको ही रहेगा और वह अचेतन सदचेतना ही। जहां जिस रूपमें निमित्त बनना है उस समय (४) जिस प्रकार दो या अनेक अचेतन पुद्गल उसकी वहां उपस्थिति हो ही जायेगी इस नियति- परमाणु मिलकर संयुक्त समान स्कन्ध रूप पर्याय वाद से पदार्थों के स्वभाव और परिणमन का उत्पन्न कर लेते है उस तरह दो चेतन मिलकर आश्रय लेकर भी उनका प्रतिक्षण का अनन्त काल संयुक्त पयोय उत्पन्न नहीं कर सकते, प्रत्यक चेतनका तकका कार्यक्रम बना दिया गया है, जिस पर चलने सदा स्वतन्त्र परिणमन रहेगा। को हर पदार्थ बाध्य है। किसी को कुछ नया करने (५) प्रत्येक द्रव्यकी अपनी मूल द्रव्य शक्तियाँ और का नहीं है। इस तरह नियतिवादियों के विविध योग्यताएँ समान रूप से सुनिश्चित हैं, उनमें हेर रूप विभिन्न समयों में हुए हैं। इसने सदा पुरुषार्थ फेर नहीं हो सकता। कोई नई शक्ति कारणान्तर की रेड मारी है और मनुष्य को भाग्यके चक्रमें से ऐसी नहीं आ सकती जिसका अस्तित्व द्रव्य में डाला है।
न हो। इसी तरह कोई विद्यमान शक्ति सर्वथा किन्तु जब हम द्रव्यके स्वरूप और उसकी विनष्ट नहीं हो सकती। उपादान और निमित्तमूलक कार्यकारण-व्यवस्था (६) द्रव्यगत शक्तियों के समान होने पर भी पर ध्यान देते हैं तो इसका खोखलापन प्रकट हो अमुक चेतन या अचेतनमें स्थल पर्याय-सम्बन्धी जाता है। जगत में समग्र भावसे कुछ बातें नियत अमुक योग्यताएँ भी नियत हैं। उनमें जिसकी है. जिनका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता । यथा- सामग्री मिल जाती है उसका विकास हो जाता है।
(१) यह नियत है कि जगत में जितने सत् जैसे कि-प्रत्येक पुद्गलाणुमें पुद्गलकी सभी द्रव्य हैं, उनमें कोई नया 'सत्' उत्पन्न नहीं हो सकता योग्यनाएँ रहने पर भी मिट्टीके पुदगल ही साक्षात
और न मौजूदा 'सत्' का समूल विनाश ही हो सकता घड़ा बन सकते हैं. कंकड़ाके पुद्गल नहीं; तन्तके है। वे सत् हैं-अनन्त चेतन, अनन्त पुद्गलाणु. पुद्गल ही साक्षात् कपड़ा बन सकते हैं. मिट्टीके एक आकाश, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य और पुद्गल नहीं। यद्यपि घड़ा और कपड़ा दोनों ही पुदअसख्य काल द्रव्य । इनकी संख्या में न तो एक की गलकी पर्यायें हैं। हॉ, कालान्तरमें परम्परासे बदलते वृद्धि हो सकती है और न एक की हानि हो। हुए मिट्टोके पुद्गल भी कपड़ा बन सकते हैं और अनादि काल से इतने ही द्रव्य थे, हैं और अनन्त तन्तुके पुद्गल भी धड़ा। तात्पर्य यह है कि-संसारी काल तक रहेंगे।
जीव और पुद्गलोंकी मूलतः समान शक्तियाँ होनेपर (२) प्रत्येक द्रव्य अपने निज स्वभाव के कारण भी अमुक स्थूल पर्यायमें अमुक शक्तियाँ ही साक्षात् पुरानी पर्याय को छोड़ता है, नई को प्रहण करता विकसित हो सकती हैं। शेष शक्तियाँ बान सामग्री है और अपने प्रवाही सत्त्व की अनुवृत्ति रखता है। मिलने पर भी वकाल विकसित नहीं हो सकतीं।